महिलाओं को राजनीति में भागेदारी क्यों नहीं मिल रही?
८ मई २००८महिलाओं की राजनीति में भागीदारी सिर्फ़ इसलिए ज़रूरी नहीं है कि आबादी में उनकी हिस्सेदारी लगभग आधी है, लेकिन यह इसलिए भी कि उनका नज़रिया अलग होता है, और इस नज़रिए की समाज को ज़रूरत है। उत्तराखण्ड की महिला और बाल विकास मंत्री वीना महाराणा बताती हैं कि राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भागीदारी समाज को ज़्यादा संवेदनशील बनाती है और एक तरह से बराबरी भी कायम करती है। सही रूप से लोकतंत्र भी तभी कायम हो सकता है जब समाज के हर हिस्से को बराबर प्रतिनिधित्व मिले।
सामाजिक और राजनीतिक ढांचे बाधा बनते हैं
पहले माना जाता था कि अगर सबको समान अधिकार और मौके दिए जाएं तो महिलाएं अपने आप ही अपनी जगह बनाने में सक्षम होंगी। बावजूद इसके नब्बे के दशक में भी पूरी दुनिया में सिर्फ़ 12 प्रतिशत सांसद ही महिलाएं थीं। फिर पेईचिंग में चौथा विश्व महिला सम्मेलन हुआ जिसमें चर्चा हुई कि व्यवहारिक समानता के बावजूद अप्रत्यक्ष सामाजिक और राजनीतिक ढांचें महिलाओं को राजनीति में भागेदार बनने से रोकते हैं। अंतर-संसदीय संघ की तरफ से कराए गए सर्वे इक्युएलिटी इन पोलिटिक्स में पाया गया है कि सामाजिक रीति रिवाज़ों के अलावा, आर्थिक क्षमता, पार्टी सिस्टम, और राजनैतिक ढांचों की सरंचना भी महिलाओं के लिए बाधा बनते हैं।
मिसाल के तौर पर सीपीएम पोलित ब्यूरो की पहली महिला सदस्य, वृन्दा करात बताती हैं कि भारत में महिलाओं को पार्टियों की तरफ़ से चुनाव लड़ने के लिए टिकिट मिलना ही मुश्किल होता है। तो वे उम्मीदवार ही नही बन पाती हैं। इसलिए वे मानती हैं कि सकारात्मक कदम उठाने के साथ साथ महिलाओं को सहयोग देना भी ज़रूरी है।
समाधान देश की चुनाव प्रणाली पर निर्भर हैं
कैसे कदम उठाए जा सकते हैं, यह इस बात पर निर्भर है कि देश की चुनाव प्रणाली क्या है। चुनाव प्रणालियां तीन तरहं की हो सकती हैं। पहली है मजौरिटी, या प्लूरालिटी सिस्टम, जैसा भारत में है। इसमें अलग अलग उम्मीदवार अपने निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ते हैं, और जिसे सबसे ज़्यादा वोट मिलते हैं, वो जीतता है।
दूसरा है प्रपोर्श्नल सिस्टम, यानी अनुपातिक प्रतिनिधित्व, जिसमें यह देखा जाता है कि एक पार्टी को कितने वोट मिले हैं। सब पार्टियां उम्मीदवारों की लिस्ट बनाती हैं, और उसके हिसाब से सीटें दी जाती हैं। तीसरा है मिश्रित सिस्टम जिसमें कुछ उम्मीदवार सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं, और कुछ अनुपातिक तरीके से।
अनुभव बताता है कि अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में महिलाओं को ज़्यादा मौका दिया जा सकता है। ये संभव है कि कोटे के ज़रिये, जो कानून बनाकर या फिर चुनाव सुधारों के जरिए लागू किए जा सकते हैं। इससे तय हो सकता है कि मनोनीत किए गए उम्मीदवारों का कितना हिस्सा महिलाओं का मिलना है और कितना पुरुषों को।
40 प्रतिशत देशों में ऐसे कोटे लागू हैं। मिसाल के तौर पर अफ्रीकी देश रुवांडा जहां 49 फ़ीसदी कोटे के साथ महिला सांसदों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है।
अर्जेंटीना में भी ऐसी ही व्यवस्था है। और हाल ही के चुनावों में नेपाल ने भी यही प्रणाली अपनाई। कुछ देश ऐसे भी हैं जहां पार्टियां खुद ही, स्वेच्छा से महिलाओं को प्राथमिकता देतीं हैं। जर्मनी में मिश्रित प्रणाली है और यहां लगभग हर पार्टी ने खुद ही महिला उम्मीदवारों के लिए 50 प्रतिशत कोटा तय कर रखा है।
बहुमत प्रणाली में पार्टी कोटे
लेकिन वृन्दा करात बताती हैं कि मुश्किल वहां होती है जहां बहुमत प्रणाली यानी मजौरिटी सिस्टम है - जैसा भारत में है। अगर उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं को बढ़ावा दिया भी जाए तो इस बात की कोई गारंटी नही है कि वे ही जीत जाएंगी। ऐसे में संसद और विधानसभाओं में आरक्षण ही समाधान है। भारत में तो ये आज भी विवाद का विशय है, लेकिन युगांडा और तंज़ानिया में ये लागू है।
स्वीडन में ऐसे कोई कानून नहीं हैं, लेकिन फिर भी संसद में महिलाओं की 40 प्रतिशत हिस्सेदारी है। अन्य नौर्डिक देशों के बारे में भी यही कहा जा सकता है।
स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर ड्रूड डाह्लेरूप ने महिला आरक्षण पर लम्बे समय तक शोध की है। वे मानती हैं कि प्रणाली चाहे जैसी हो लेकिन सही बदलाव तभी आ सकता है जब राजनैतिक इच्छाशक्ति हो। और सिर्फ़ नम्बर बढ़ाने से भी काम नही चलेगा। ये तो सिर्फ़ पहला कदम है। ज़रूरत है देश को चलाने में सच्ची साझेदारी की। तभी सही मायने में लोकतंत्र कायम किया जा सकेगा।