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भारत में महिलाओं के साथ 'राजनीति'

सुनंदा राव, नई दिल्ली से२७ फ़रवरी २००९

भारत में एक बार फिर आम चुनाव सामने हैं और राजनैतिक जोड़तोड़ के दौर शुरू हो चुके हैं. इसी गहमागहमी में ये जानना भी दिलचस्प है कि हर दल का चुनाव मैदान में महिलाओं को अहम भागीदारी देने का दावा है.

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कैसी भागीदारी कैसा प्रतिनिधित्वतस्वीर: AP

भारतीय राजनीति में महिला भागीदारी का सवाल बौद्धिक बहसों सेमिनारों और गोष्ठियों में गूंजता ही रहता है. है. कहने को तो मायावती, जयललिता, सोनिया गांधी जैसी नेता भारतीय सत्ता राजनीति के आकाश के चमकते नक्षत्र हैं लेकिन सवाल ये है कि इस चमक का दायरा कितना व्यापक- कितना सघन - और कितना स्थायी है.

भारत की राजनीति में वर्षों से पुरुष ही राज करते आए हैं. हालांकि भारत उन देशों में से एक है जिसने दशकों पहले ही अपनी बागडोर इंदिरा गांधी के हाथों सौंप दी थी लेकिन आज भी हर स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम रहा है. पार्टियों में महिला कार्यकर्ताओं से आज भी केवल महिला संबंधी विषयों पर काम कराया जाता है. जब देश की नीतियों और महत्वपूर्ण फैसले लेने की बात आती है तो महिलाओं की भूमिका नहीं के बराबर रहती है. फिर भी, आज सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी या फिर जयललिता जैसी नेताएं हमारे सामने हैं जो भारतीय राजनीति के शिखर पर देखी जा सकती हैं.

एक तरफ बड़े शहरों के कॉर्पोरेट जगत में धीरे धीरे महिलाएं पुरुषों के साथ अपनी जगह बना रही हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं राजनीति में उतर कर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं.

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अभी तो बुनियादी हक़ों की लड़ाई ही जारी हैतस्वीर: Thomas Lohnes/Welthungerhilfe

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षिक आयोग की सदस्य डॉ शाहिस्ता गफूर बताती हैं कि आज भी गरीबी, शिक्षा में कमी या फिर पिछड़े समाज की वजह से महिलाएं आगे नहीं आ पा रही हैं. उनके अनुसार अगर महिलाएं आगे आती भी हैं तो इसके पीछे किसी न किसी पुरुष का हाथ होता है वरना अपने बलबूते पर समाज में ऊपर आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता. फिर भी वे मानती हैं कि यूरोप या अमेरिका की तुलना में लोकतांत्रिक समाज को आगे बढ़ाने में भारत का बड़ा योगदान रहा है.

सितंबर 1996 में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को लेकर एक बिल का प्रस्ताव रखा गया लेकिन कई कोशिशों के बावजूद इसे अमल में नहीं लाया जा सका है. इस दौरान सरकार बदली, लेकिन बीजेपी हो या कांग्रेस, हर पार्टी वादे तो कर देती है लेकिन हर बार विपक्ष की तरफ से इस बिल को पीछे धकेल दिया जाता है.

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दलितों की राजनैतिक चेतना के केंद्र में हैं मायावतीतस्वीर: AP

1992 में भारत की लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत था. समय के साथ साथ यह संख्या ऊपर की ओर बढ़ी लेकिन उतनी ही बार नीचे की ओर भी लुढ़की. 1991 में लोकसभा में 8.04 प्रतिशत महिलाएं थीं और 2004 में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कभी भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 9 से 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सका.

उल्लेखनीय है कि भारत में सबसे ज्यादा उन्नती कर रहे राज्य, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिल नाडू में बहुत कम महिला राजनीतिज्ञ सामने आई हैं जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार में उनकी संख्या कहीं ज्यादा है. छोटी पार्टियों की तुलना में बीजेपी या कांग्रेस ने महिलाओं को कम मौके प्रदान किये हैं. सीपीआईएम ने पिछले चुनावों में 12 प्रतिशत टिकटें महिलाओं को दीं जबकि बीजेपी ने 8 प्रतिशत और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत से कुछ कम.

इसका कारण यह बताया जाता है कि जीतने योग्य उम्मीदवारों को ही टिकटें दी जाती हैं और इसमें महिलाओं के साथ भेद-भाव नहीं किया जाता. लेकिन कई अध्ययन यह साबित कर चुके हैं कि इसमें भी महिलाओं का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा है.