भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम शांति के लिए काफी नहीं
१३ मई २०२५भारत और पाकिस्तान के विदेश नीति विशेषज्ञों और राजनयिकों का मानना है कि भले ही यह संघर्षविराम, पिछले 25 सालों में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सबसे गंभीर सैन्य टकराव का अंत माना जा रहा है, लेकिन अमेरिकी मध्यस्थता में हुआ यह संघर्षविराम,स्थाई शांति का वादा नहीं करता है.
दोनों देशों के कूटनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका की मध्यस्थता ने दोनों देशों के लिए युद्ध से निकलने का एक बेहतर मार्ग खोल दिया. अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत, मीरा शंकर ने डीडब्ल्यू को बताया, "पाकिस्तान को संघर्षविराम के लिए राजी करने में अमेरिका ने मददगार भूमिका निभाई है.”
भारत के पूर्व पाकिस्तानी उच्चायुक्त, अजय बिसारिया का कहना है, "अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों समेत कई उपायों का इस्तेमाल कर संघर्ष को जल्द समाप्त कराने में मदद की है. भारत ने आतंकवाद के प्रति शून्य सहनशीलता की नई नीति अपनाई है. जिसे अमेरिका ने भी स्वीकार किया है.”
दोनों पक्षों ने ‘अपना-अपना संदेश दे दिया'
पाकिस्तानी विश्लेषकों ने भी इस बात पर सहमति जताई है. पाकिस्तान के पूर्व राजदूत और वॉशिंगटन डीसी के हडसन इंस्टिट्यूट में सीनियर रिसर्चर, हुसैन हक्कानी ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत और पाकिस्तान दोनों को संघर्षविराम की जरूरत थी. लेकिन कोई भी देश इसकी पहल नहीं करना चाहता था, क्योंकि इससे राष्ट्रीय गौरव और नेताओं के अहम को ठेस पहुंचती है. ऐसे हालात में, अमेरिका ने यह फैसला लेने में मदद की.”
हक्कानी के अनुसार, भारत चाहता था कि पाकिस्तान को यह स्पष्ट संदेश मिल जाए कि आतंकवादी हमलों को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा. दूसरी तरफ पाकिस्तान यह दिखाना चाहता था कि वह चुपचाप बैठने वाला नहीं है. उन्होंने कहा, "दोनों पक्षों ने अपना-अपना संदेश दे दिया है.”
हक्कानी यह भी मानते है कि दोनों देशों ने इस सैन्य तनाव का उपयोग एक-दूसरे की रणनीति, ताकत और कमजोरियों को परखने के लिए भी किया है. उन्होंने कहा, "दोनों को यह समझ में आ गया है कि भारी तबाही के बिना कोई भी युद्ध नहीं जीत सकता है.”
अंतरराष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ और अमेरिका व संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की पूर्व राजदूत, मलीहा लोधी, का भी मानना है कि ट्रंप प्रशासन की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है. उन्होंने कहा, "1999 से अब तक भारत-पाकिस्तान के बीच हर बड़े संकट में अमेरिका ने मध्यस्थता कर तनाव को कम किया है.”
लोधी ने आगे कहा, "संघर्षविराम बना रहेगा क्योंकि दोनों देश इसे मान चुके हैं और इसके उल्लंघन में किसी का भी फायदा नहीं है. लेकिन तनाव कम होने में अभी समय लग सकता है.”
ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूट की रिसर्चर, मदीहा अफजल, ने संघर्षविराम का स्वागत किया है. उन्होंने कहा, "ट्रंप, पहले कार्यकाल के जैसे ही अभी भी भारत और पाकिस्तान दोनों को लेकर निष्पक्ष बयान देते हैं. जो भारत के साथ उनके करीबी संबंधों और मोदी से नजदीकी की अटकलों के बीच काफी जरूरी हो जाता है. पाकिस्तान, इस संतुलित रवैये की सराहना करता है.”
मदीहा का मानना है कि यह कदम वॉशिंगटन और इस्लामाबाद के रिश्तों को बेहतर करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.
अमेरिका, सऊदी अरब और ईरान की मध्यस्थता
हालांकि अमेरिका की भूमिका अहम रही, लेकिन सऊदी अरब और ईरान भी भारत और पाकिस्तान, दोनों के साथ अपने मजबूत आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों के चलते प्रमुख मध्यस्थ के रूप में सामने आए.
उच्च राजनयिक सूत्रों के अनुसार, सऊदी अरब के राज्य मंत्री, अदेल अल-जुबैर और ईरान के विदेश मंत्री, अब्बास अरागची ने दोनों देशों के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों का हवाला देकर मध्यस्थता की.
भारतीय पक्ष के लोगों का कहना है कि हाल की घटनाओं से पाकिस्तान में सेना की सरकार पर पकड़ साफ दिखाई देती है. भारत की पूर्व राजनयिक, दीपा गोपालन वाधवा ने डीडब्लू से कहा, "इन घटनाओं से लगता है कि पाकिस्तानी सेना 'नियंत्रण से बाहर' है और वहां की सरकार से उसका तालमेल कमजोर है. संघर्ष रोकने को लेकर सरकार और सैन्य नेतृत्व के बीच अब भी मतभेद नजर आते हैं. उन्हें पहले आपसी मतभेद सुलझाने की जरुरत है.”
वाधवा ने यह भी बताया कि भारत और पाकिस्तान के सैन्य अभियानों के महानिदेशकों (डीजीएमओ) के बीच हुई हाल की बातचीत तनाव को नियंत्रित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास रही है.
उन्होंने कहा, "डीजीएमओ की मध्यस्थता से हुए युद्धविराम के बावजूद तनाव बढ़ना इस बात को दिखाता है कि इस तरह के समझौते कितने संवेदनशील होते हैं, खासकर तब जब गहरे अविश्वास की भावना हो और पाकिस्तान में जटिल सरकार-सैन्य संबंध हों.”
दोनों देशों के डीजीएमओ ने दोबारा बातचीत करने पर सहमति जताई है.
क्या शांति संभव है?
भारत के रक्षा रणनीतिकार, ब्रिगेडियर एस. के. चटर्जी, ने चेतावनी दी कि यह समझौता भविष्य में स्थिरता की कोई गारंटी नहीं है. उन्होंने डीडब्लू से कहा, "इस बार अमेरिका की भागीदारी के बावजूद, अब भविष्य में किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता भारत स्वीकार नहीं करेगा.”
विश्लेषकों का मानना है कि हालांकि भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे पर समझौते के उल्लंघन के आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव और तनाव बढ़ने से होने वाले नुकसान को समझते हुए, फिलहाल संघर्षविराम टिके रहने की संभावना है.
अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत शंकर ने कहा, "मुझे उम्मीद है कि संघर्षविराम स्थिर होगा और बना रहेगा. भारत-पाकिस्तान के बीच बड़े सैन्य संघर्ष का कोई फायदा नहीं है और यह क्षेत्र की शांति व स्थिरता के लिए भी नुकसानदायक है. हालांकि, पाकिस्तान के साथ रिश्ते चुनौतीपूर्ण बने रहेंगे.”
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त, अजय बिसारिया ने आगाह किया कि आतंकवाद और जल सुरक्षा जैसे मुद्दे लंबे समय तक चुनौतीपूर्ण रहेंगे. उन्होंने कहा, "भारत द्वारा सिंधु जल संधि का निलंबन और व्यापारिक प्रतिबंध, और पाकिस्तान की आर्थिक सीमाएं, दोनों देशों के संबंधों को तनावपूर्ण बनाए रखेंगे.” हालांकि उनका मानना है, "कुछ समय के लिए स्थिरता संभव है.”
फिलहाल दोनों सेनाएं हाई अलर्ट पर हैं, लेकिन नियंत्रण रेखा पर ड्रोन गतिविधियों या तोपखाने की झूठी खबरों से फिर से तनाव भड़कने का खतरा बना हुआ है.
चटर्जी ने कहा, "संघर्षविराम हमेशा के लिए नहीं चल पाएगा. पाकिस्तान भारत द्वारा सिंधु जल संधि को रोके जाने का कड़ा विरोध करेगा.” उन्होंने यह भी कहा कि, "भारत का पानी को अपनी रणनीति के तहत 'इनाम' की तरह इस्तेमाल करना यानी अगर पाकिस्तान आतंकी तंत्र को खत्म करने की दिशा में कदम उठाता है, तो पानी की आपूर्ति बनाए रखना, यह एक आदर्श तरीका हो सकता है.”
वॉशिंगटन के स्टिमसन सेंटर में दक्षिण एशिया विभाग की निदेशक, एलिजाबेथ थ्रेल्केल्ड ने डीडब्ल्यू से कहा, "मेरे अनुसार सबसे जरूरी बात यह है कि संघर्षविराम पर सहमति बनी है और दोनों पक्षों को इसे बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए. भविष्य में इस तरह के संघर्ष दोबारा ना हो इसके लिए कई कदम उठाने की जरूरत है और भारत, पाकिस्तान, अमेरिका और अन्य अंतरराष्ट्रीय साझेदारों की भी यही प्राथमिकता होनी चाहिए.”