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फल फूल रहा है खाने में मिलावट का धंधा

१३ फ़रवरी २०१२

दूध में डिटर्जेंट, घी में डालडा, महंगे तेल में सस्ता तेल. सेब पकाने के लिए कैंसर पैदा करने वाले कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल. जेब भरने के लिए लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ का धंधा पुराना है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

भीम समझ ही नहीं पा रहे कि उन्होंने गलती क्या की. हर दिन वे कई सौ व्यापारियों के साथ नई दिल्ली की आजादपुर मंडी में आते हैं. भीड़ भड़क्के और शोर गुल से भरी इस मंडी में वे अपने लाल सेब लेकर काफी समय से आ रहे हैं और उतने ही साल से अपने सेब कैल्शियम कार्बाइड से पका रहे हैं. वैसे तो उन्हें पता है कि कैल्शियम कार्बाइड से कैंसर होता है लेकिन फिर भी वे सेब को उसी तरह पका रहे हैं.

भीम कहते हैं कि वे तो बहुत साल से इस केमिकल का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन आज तक तो कोई उनका सेब खा के नहीं मरा, तो इतना बवाल क्यों. "मेरा विश्वास करें यह बहुत पुराना तरीका है. लेकिन अचानक डॉक्टर कहने लगे हैं कि इससे कैंसर होता है. बताइए कि यह कैसे संभव है. सभी ऐसा ही करते हैं. अब नजर बचा कर किया जा रहा है. और मैं आपको बताता हूं कि यह कभी बंद भी नहीं होगा. क्या कोई अपनी बिक्री को नुकसान होने दे सकता है."

रास्ता लंबा

भारतीय खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के अधिकारी कहते हैं कि नियमों और कानूनों के प्रभावी तरीके से लागू होने का रास्ता लंबा है. एफएसएसएआई ने कैल्शियम कार्बाइड के उपयोग पर रोक लगा दी है. रॉयटर्स समाचार एजेंसी ने खाद्य सुरक्षा अधिकारियों के हवाले से लिखा है. "पर्दे के पीछे यह अभी भी इस्तेमाल होता है. पके हुए फल इतनी दूर से मंडी में कोई कैसे लाए."

कुल मिला कर भारत को खाद्य सुरक्षा के नियम लागू करने के लिए अभी काफी काम करना पड़ेगा. यहां सब्जियों में चूहों का जहर, मिठाइयों में कास्टिक सोड़ा, दूध में डिटर्जेंट... सब कुछ मिल जाता है.

जनवरी में जारी एफएसएसएआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश भर में अधिकतर शहरों में दूध या तो पानी मिला कर पतला किया जाता है या फिर उसे गाढ़ा बनाने के लिए उसमें फर्टिलाइजर, ब्लीच, डिटरजेंट जैसे केमिकल डाले जाते हैं. भारत में दूध लोगों के लिए प्रोटीन का इकलौता स्रोत है.

और हैरान होने के लिए एफएसएसएआई की दूसरी रिपोर्ट भी है जो कहती है कि दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले भारत में 13 फीसदी खाना गुणवत्ता के मानक स्तर से नीचे है. नई दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट (सीएसई) की सौम्या मिश्रा कहती हैं, "समस्या बहुत व्यापक है. हर चीज प्रदूषित है. अगर सभी में गड़बड़ है तो जो मिल रहा है वह खाओ."

मानक बनाने की मुश्किल

दो दशकों में हुई तेज प्रगति ने देश में उच्च मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ाई है जो रोज बेहतर और कई तरह का खाना खा सकते हैं. चाहे फ्रांसीसी हो या इतालवी, या फिर सुशी. लेकिन खाद्य सुरक्षा फिर भी मुश्किल हो रही है. इसका कारण है एक बड़ा गरीब वर्ग. जो मानक और गुणवत्ता नहीं देखता. वह वही खरीदता है जो सस्ता है.

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तस्वीर: AP

समस्या बड़ी है और नियामक संस्थाओं में स्टाफ नहीं. मिलावट करने वाले लोगों में से कुछ ही को सजा मिल पाती है. सीएसई की मिश्रा कहती हैं, "चीन में जिन लोगों ने दूध में मेलामाइन की मिलावट की उन्हें फांसी की सजा दी गई. और यहां तो कोई सजा दी ही नहीं जाती. तो उन्हें अधिकारियों का डर लगेगा कैसे."

ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों में मिलावट नहीं होती है. हाल ही में जर्मनी में मांस में औद्योगिक चर्बी मिलाने का मामला सामने आया था. लेकिन कुल मिला कर ऐसी घटनाएं कम हैं.

दिल्ली में फल और सब्जियां काफी दूर से आती हैं. ऐसे इलाके जहां फसल स्टोर कर के रखने की सुविधाएं नहीं के बराबर हैं. इसलिए सामान्य परिस्थिति में सेब और आम जैसे फल मंडी तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाते हैं. इससे बचने के लिए व्यापारी मसाला यानी कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल करते हैं जो फलों के पकने की गति धीमी कर देते हैं. इसके अलावा ताजा दिखने के लिए अक्सर कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल किया जाता है.

नई दिल्ली की सरकार इस समस्या से निबटने की तैयारी में है. दिल्ली की एवोन लैब के निदेशक एनसी बासंतिया कहते हैं, "आप कह सकते हैं कि हमारे कानून तो बहुत अच्छे हैं लेकिन उन्हें लागू करने का तरीका बहुत कमजोर."

खाद्य सुरक्षा लागू करना कितनी बड़ी चुनौती है इसका एक उदाहरण तो यही है कि एक करोड़ सत्तर लाख लोगों की दिल्ली में सिर्फ 32 फूड सेफ्टी ऑफिसर्स हैं.

रिपोर्टः रॉयटर्स आभा एम

संपादनः महेश झा

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