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महिलाओं और ट्रांसजेंडरों के लिए यहां सुलभ नहीं है शौचालय

प्रभाकर मणि तिवारी
९ सितम्बर २०२५

ग्रामीण इलाकों के खुले में शौचमुक्त (ओडीएफ) होने के तमाम दावों के बावजूद शहरी इलाकों में निचले तबके की कामकाजी महिलाओं और ट्रांसजेंडरों को शौचालय की सुविधा सुलभ नहीं है. कोलकाता में एक ताजा अध्ययन से इसका पता चला है.

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 कोलकाता का एक सार्वजनिक शौचालय
कोलकाता जैसे शहर में भी कामकाजी महिलाओं को शौचालय की दिक्कत झेलनी पड़ती हैतस्वीर: Prabhakar/DW

कोलकाता जैसे महानगर में अगर यह स्थिति है तो राज्य के बाकी शहरों में तस्वीर का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. कोलकाता में आजाद फाउंडेशन और सबर इंस्टिट्यूट के एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि महानगर में निचले तबके की कामकाजी महिलाओं और ट्रांसजेंडरों को सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल करने के लिए अपनी दैनिक आय का करीब दस फीसदी खर्च करना पड़ता है.

मध्यम वर्ग के लिए यह रकम छोटी लग सकती है, लेकिन उन महिलाओं की आय के लिहाज से देखें तो यह एक बड़ी रकम है. इससे साफ है कि शौचालयों तक उनकी पहुंच सुलभ नहीं है. ऐसे में उनके सामने दो ही विकल्प बचते हैं. या तो वो अपनी रोजाना की कमाई का दस फीसदी इस पर खर्च करें या फिर गंदी जगहों का इस्तेमाल करें.

स्वच्छ भारत के दावों की पोल खोलती डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट

इस अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि कमाई का दस फीसदी खर्च करने के बावजूद इन शौचालयों में ना तो साफ-सफाई का बेहतर इंतजाम है और ना ही वहां हाथ धोने के साबुन वगैरह उपलब्ध हैं. महिलाओं के अलावा खास तौर पर ट्रांसजेंडरों को कई बार ऐसे सार्वजनिक शौचालयों में यौन उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है.

उपनगरों से आकर महानगर में काम करने वाली निचले तबके की इन महिलाओं की औसत दैनिक कमाई सौ से दो सौ रुपए के बीच है. ऐसे में खासी रकम खर्च करने के बावजूद उनको सुविधा नहीं मिल पाती.

ताजा अध्ययन से इस बात का भी पता चला है कि 53 फीसदी से ज्यादा महिलाएं शौचालय के दरवाजे की कुंडी टूटी होने, प्रकाश की समुचित व्यवस्था नहीं होने और उत्पीड़न के खतरों की वजह से सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल करने के दौरान असुरक्षित महसूस करती हैं.

महिलाओं की दिक्कतें

कोलकाता नगर निगम और गैर-सरकारी संगठन सुलभ शौचालय की ओर से महानगर में कई जगह ऐसे 'पे एंड यूज' सार्वजनिक शौचालय बनाए गए हैं जहां न्यूनतम पांच से दस रुपए तक खर्च करने पड़ते हैं. ऐसे में इन महिलाओं के नजरिए से देखें तो उनके लिए इनका इस्तेमाल एक महंगा सौदा है.

उत्तर 24-परगना जिले के पानीहाटी की रहने वाली सरिता कुंडू रोजाना एक दुकान में काम करने के लिए लोकल ट्रेन से कोलकाता आती है. कहने को तो वह दुकान कोलकाता के केंद्र कहे जाने वाले धर्मतल्ला के न्यू मार्केट इलाके में है. लेकिन वहां भी सार्वजनिक शौचालयों की भारी कमी है. जो हैं भी वो इतने गंदे हैं कि राहगीर भी नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं.

कोलकाता के सब्जी बाजार में दुकान लगाने वाली महिलाएं
शहरी इलाके में रहने वाली महिलाओं को भी शौचालय की दिक्कत से जूझना पड़ता हैतस्वीर: Prabhakar/DW

सरिता डीडब्ल्यू से कहती है, "यह बहुत गंभीर समस्या है. हमारे आसपास जो शौचालय हैं वहां न्यूनतम पांच रुपए खर्च करने पड़ते हैं. ठीक से रखरखाव नहीं होने की वजह से वहां इतनी गंदगी रहती है कि हमेशा संक्रमण का खतरा बना रहता है.” 

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मधुमेह की मरीज होने की वजह से दिन में कम से कम 8-10 बार इन शौचालयों का इस्तेमाल करना सरिता की मजबूरी है. वह कहती हैं, "मैं कोलकाता के गर्म मौसम के बावजूद काम के दौरान कम से कम पानी पीती हूं ताकि बार-बार शौचालय नहीं जाना पड़े."

कोलकाता में रहने वाली ट्रांसजेंडर माधुरी बताती है, "हमारे पास आय का कोई साधन नहीं है. ऐसे में कई बार हम सार्वजनिक शौचालय पर इतनी रकम खर्च करने की हालत में नहीं होते. इस वजह से हमें कई बार हमें खुली जगह का ही सहारा लेना होता है. उसके मुताबिक, शौचालयों में साफ-सफाई की बेहद कमी है. साथ ही वहां अश्लील फिकरे सुनने पड़ते हैं और कई बार यौन उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है. शौचालय में तैनात कर्मचारी को सिर्फ पैसों से मतलब होता है."

मिशन निर्मल बांग्ला और स्वच्छ भारत योजना

पश्चिम बंगाल में 'स्वच्छ भारत मिशन' के अलावा राज्य सरकार की 'निर्मल बांग्ला योजना' के तहत ऐसे सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया जाता है. राज्य सरकार के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताते हैं, "कोलकाता जैसे महानगर में अकसर जगह की किल्लत के कारण जरूरत के हिसाब से शौचालयों का निर्माण नहीं हो पाता. दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में शौचालय होने के बावजूद महिलाएं उनका इस्तेमाल नहीं करतीं. सफाई कर्मचारियों की कमी की वजह से उनकी नियमित साफ-सफाई संभव नहीं हो पाती. नतीजतन महिलाएं खुली जगह को ही तरजीह देती हैं."

इस अधिकारी के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है ताकि महिलाओं को सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जा सके. लेकिन साथ ही सफाई कर्मचारियों की तैनाती बढ़ाना भी जरूरी है.

कोलकाता के सब्जी बाजार में दुकान लगाने वाली एक महिला
कामकाजी महिलाओं को कमाई का एक बड़ा हिस्सा देने के बावजूद शौचालय की सुविधा नहीं मिलतीतस्वीर: Prabhakar/DW

आजाद फाउंडेशन और सबर इंस्टीट्यूट ने अपने अध्ययन के नतीजे को कोलकाता नगर निगम के मेयर फिरहाद हकीम को सौंपा है ताकि महिलाओं के लिए हालात को बेहतर बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें.

आजाद फाउंडेशन के सदस्य डोलोन गांगुली डीडब्ल्यू से कहते हैं, "नगर निगम को इस स्थिति में सुधार के लिए महिलाओं और ट्रांसजेंडरों के लिए ऐसे सार्वजनिक शौचालयों की संख्या बढ़ानी होगी जो उनकी पहुंच या सामर्थ्य के दायरे में हो. इसके अलावा वहां उनको यौन उत्पीड़न से बचाने की पुख्ता व्यवस्था के साथ ही साफ-सफाई, बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने और शौचालय के बाहर महिला कर्मचारियों की तैनाती की व्यवस्था करनी होगी."

 शौचालयों के बारे में सरकारी दावे

राज्य सरकार के शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम, जो कोलकाता नगर निगम के मेयर भी हैं, मानते हैं कि कुछ जगह समस्याएं हो सकती हैं. सरकार ताजा अध्ययन रिपोर्ट पर विचार कर उन कमियों को दूर करने का प्रयास करेगी. वो डीडब्ल्यू को बताते हैं, "इस साल अप्रैल तक राज्य के 125 शहरों में 694 सामुदायिक शौचालयों और 267 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण कार्य चल रहा था. निर्मल बांग्ला योजना के तहत अक्तूबर, 2019 में ही राज्य के ग्रामीण इलाकों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया था."

शहरी विकास मंत्रालय के एक अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस साल जुलाई तक स्वच्छ भारत मिशन के तहत राज्य के विभिन्न शहरों में 5,746 सार्वजनिक और सामुदायिक शौचालयों का निर्माण पूरा हो गया था. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में भी करीब आठ हजार सामुदायिक शौचालय परिसरों की स्थापना की जा चुकी है."

कोलकाता नगर निगम के अधिकारियों का कहना है कि महानगर में इस साल अगस्त यानी पिछले महीने तक 478 सार्वजनिक शौचालय काम कर रहे थे.

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वैसे, इन दोनों योजनाओं का ज्यादा जोर गांवों को खुले में शौच मुक्त घोषित करने पर ही रहा है. कई सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि शौचालयों के निर्माण के बावजूद उनकी उपलब्धता, सुरक्षा और साफ-सफाई जरूरत से काफी कम है.

स्वच्छ भारत मिशन के तहत बीते महीने ही कोलकाता को भारत के सर्वश्रेष्ठ शहर का अवार्ड मिला है. लेकिन ताजा अध्ययन ने इसकी पोल खोल दी है. बीते सालों में शौचालय बनाने की दिशा में काफी प्रगति हुई है लेकिन अब भी कई इलाके ऐसे हैं जहां इस पर काम करने की जरूरत है. 

सफाई कर्मचारियों की कमी

सफाई कर्मचारियों की भारी कमी इस समस्या का एक गंभीर पहलू है. कोलकाता के मामले में नगर निगम में सफाई कर्मचारियों के लगभग 14 हजार पद हैं. इनमें से करीब आठ हजार पद खाली हैं. उनकी जगह सौ दिनों की रोजगार योजना के तहत अस्थायी मजदूरों से काम चलाया जा रहा है. इनको दैनिक 202 रुपए की मजदूरी मिलती है.

नगर निगम में कर्मचारियों के संगठन केएमसी वर्कर्स यूनियन के एक सदस्य रतन राम डीडब्ल्यू को बताते हैं, "शौचालयों के रखरखाव से लेकर कचरे के निपटान तक ज्यादातर काम अस्थाई कर्मचारियों के जरिए ही कराया जाता है. लेकिन उनको आठ घंटे काम के एवज में 202 रुपए की मजदूरी मिलती है. ऊपर से कर्मचारियों की कम तादाद की वजह से कई बार उनको 12-12 घंटे काम करना पड़ता है. लेकिन इसके लिए कोई ओवरटाइम नहीं मिलता."

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उनका कहना है कि सार्वजनिक शौचालयों के बेहतर रखरखाव के लिए सफाई कर्मचारियों की तादाद के साथ ही उनकी मजदूरी बढ़ाना जरूरी है.

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार भारी तादाद में सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण का दावा भले कर रही हो, इस मामले में मांग और आपूर्ति का अंतर साफ नजर आता है. खासकर भीड़भाड़ वाले इलाकों और गरीबों की बस्तियों के आस-पास इनकी संख्या जरूरत के हिसाब से बहुत कम है. साफ-सफाई और सुरक्षा की कमी, मेंसुरल कचरे को निपटाने की सुविधा नहीं होने जैसी वजहों के कारण महिलाएं इन शौचालयों का इस्तेमाल करने से हिचकती हैं. इन शौचालयों में रखरखाव की भी भारी कमी है.

महिला अधिकार कार्यकर्ता सुष्मिता बारुई डीडब्ल्यू से कहती हैं, "जब कोलकाता जैसे महानगर की यह हालत है तो ग्रामीण इलाकों में तस्वीर का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. वहां ना तो पर्याप्त शौचालय हैं और ना ही मेंसुरल कचरे के निपटान की कोई व्यवस्था."

सामाजिक कार्यकर्ता देवस्मिता बनर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "इन शौचालयों के आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाने के साथ ही सैनिटरी पैड डिस्पोजल, सैनिटरी पैड के लिए वेंडिंग मशीन और प्रकाश की समुचित व्यवस्था करना समय की मांग है."

कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन शौचालयों में साफ-सफाई, रखरखाव और दूसरी सुविधाओं की निगरानी के लिए समितियों का गठन कर इनमें स्थानीय लोगों या निजी संगठनों के सदस्यों को शामिल किया जा सकता है. इसके लिए सरकार की इच्छाशक्ति जरूरी है.