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नौकरी की आपाधापी से दूर फिल्म बनाता नौकरशाह

२८ अगस्त २०११

पश्चिम बंगाल सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नौकरी से छुट्टी लेकर कई डॉक्यूमेंट्री बनाई हैं. शान्तनु बासु ने टोटो और बिरहोर जाति के वनवासी लोगों की जिंदगी को कैमरे में कैद किया है जो अब विलुप्त होने की कगार पर हैं.

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तस्वीर: AP

पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के अतिरिक्त सचिव शान्तनु ने जलपाइगुड़ी के मदारीहाट ब्लॉक के बीडीओ के रूप में काम किया और इसी दौरान उन्हें विलुप्त होती जनजातियों के बारे में जानकारी जुटाने का मौका मिला. शान्तनु बताते हैं, "मैं खाली वक्त में अक्सर टोटोपारा जाया करता था. तभी मुझे 1252 टोटो परिवारों के अस्तित्व का पता चला, मंगोलियाई वंश की तीन प्राचीन जातियों में एक टोटो भी है. उसी वक्त मेरे मन में उनके जीवन का वृत्तांत कैमरे में उतारने का विचार आया."

कबीले का सहयोग

बासु बताते हैं कि फिल्म बनाते वक्त इन लोगों ने भी उनकी खूब मदद की. टोटो परिवारों में एक खास त्यौहार के मौके पर यिओ शराब बनाई जाती है. बासु की फिल्म जब बन रही थी तब इस त्यौहार का मौसम नहीं था लेकिन फिर भी उनके लिए त्यौहार का आयोजन किया गया. उनकी बनाई डॉक्यूमेंट्री नेक्स्टडोर नेबर में इस त्यौहार के दृश्यों का इस्तेमाल हुआ है.

Küste Nicobaren und Andamaren
तस्वीर: AP

बासु के लिए फिल्म बनाने का बुनियादी मकसद था दुनिया को टोटो लोगों के जीवन के बारे में बताना और साथ ही इस झूठ से पर्दा हटाना कि ये लोग बाहर से आने वालों के लिए दुश्मनी का भाव रखते हैं. टोटो समुदाय भी आधुनिक समाज की उस आंधी से जूझ रहा है जो उनके लिए पहचान का संकट बन रही है. बासु बताते हैं, "आप युवा टोटो बच्चों को एडिडास के लोगो वाले टी शर्ट, जीन्स, आधुनिक उपकरण और नेपाली फिल्मों की सीडी के साथ देख सकते हैं. यह इलाका 500 से 2000 फीट की ऊंचाई पर है और बारिश के दिनों में यहां जाना नामुमकिन है. फिर भी बदलाव यहां तक पहुंच रहा है."

कई कहानियां

बासु ने फिल्म राज्य सरकार के सूचना और संस्कृति विभाग की तरफ से बनाई है और इसके लिए कुछ पैसा बीरपारा मदारीहाट पंचायत समिति ने भी दिया. फिल्म में 10वीं पास करने वाली कबीले की पहली लड़की सुखना टोटो की कहानी भी है जिसने अब अपने इलाके के बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया है. बासु ने बताया, "इस समुदाय का पहला ग्रेजुएट संजीव टोटो मेरे दफ्तर में काम करता है और उसी की वजह से डॉक्यूमेंट्री बनाने की मेरी इच्छा पूरी हो सकी."  बासु के मुताबिक फिल्म को सबसे पहले टाटापोरा में कबीले के लोगों को दिखाया गया और उन लोगों ने इसे सराहा है.

बासु ने एक अन्य फिल्म बिरहोर कबीले के लोगों पर बनाई है. ये लोग पुरुलिया जिले के बरामपुर ब्लॉक में बसे झालदा गांव में रहते हैं. बासु ने इन लोगों से उनके रोजमर्रा के कामों को कैमरे में कैद करने की इच्छा जताई और ये लोग तैयार हो गए. इन लोगों का जीवन मछली पकड़ने, लंबे घासों की बुनाई और खेती जैसे कामों के इर्द गिर्द घूमता है. बासु बताते हैं, "उनकी भाषा में बीर का मतलब जंगल और होर का मतलब मानव होता है. यही उनके समुदाय का नाम है. पुरुलिया और झारखंड के कुछ इलाकों में रहने वाले इन लोगों की यह जाति मानव जीवन के शुरुआती दौर की है. ये लोग भी आधुनिकता की आंधी नाम के खतरे से अपनी पहचान बचाने के लिए जूझ रहे हैं."

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः वी कुमार

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