"निराश लोगों की राजधानी बन रहा है भारत"
१० सितम्बर २०११डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट को खारिज करने वाले डॉक्टरों की दलील है कि भारत में मानसिक रोगियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों और सुविधाओं की भारी कमी है. वर्ल्ड असोसिएशन ऑफ सोशल साइकिएट्री के महासचिव डॉ. राय अब्राहम कालिवयालिल कहते हैं, "भारत को दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से बढ़ने वाले निराश लोगों का देश कहना सच्चाई की गलत व्याख्या है."
ज्यादा कमाई ज्यादा तनाव
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट अलग अलग आमदनी वाले 18 देशों के 90 हजार लोगों से की गई बातचीत पर आधारित है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 10 सबसे ज्यादा कमाई वाले देशों में तनाव और अवसाद की औसत उम्र 14.6 फीसदी है. आठ मध्यम और कम आमदनी वाले देशों में यह औसत 11.1 फीसदी है. इसी साल जुलाई के आखिरी सप्ताह में जारी की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 9 फीसदी लोगों के जीवन में तनाव और निराशा की मात्रा बहुत ज्यादा है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय लोगों में मेजर डिप्रेसिव एपिसोड्स सबसे ज्यादा 35.9 फीसदी है. चीन जो भारत की दुनिया में एक बड़ा देश है वहां यह दर दुनिया में सबसे कम 12 फीसदी दर्ज की गई है. मेजर डिप्रेसिव एपिसोड्स लोगों की मनोस्थिति के बारे में जानकारी जुटा कर तैयार किए जाते हैं.
कितने भरोसेमंद आंकड़े
कालिवयाली और भारत के मानसिक स्वास्थ्य के दूसरे जानकारों ने इस बात की ओर इशारा किया है कि भारत के बारे में दिए गए आंकड़े सही नहीं हैं. उनका कहना है कि डब्ल्यूएचओ के रिसर्च में वैसे तो भारत के 11 मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों को शामिल किया गया लेकिन रिपोर्ट में पुड्डुचेरी केंद्र के आंकड़ों को ही ज्यादा प्रमुखता दी गई. जानकारों का यह भी कहना है कि दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स को आंकड़ों की सूची बनाने का काम सौंपा गया था लेकिन वह सभी 11 केंद्रों से मिले नतीजों को हॉर्वर्ड मेडिकल स्कूल तक पहुंचाने में नाकाम रहा.
हॉर्वर्ड मेडिकल स्कूल ही इस सर्वे के प्रमुख केंद्र के रूप में काम रहा था. डब्ल्यूएचओ के सर्वे से जुड़े एम्स के एसोसिएट प्रोफेसर राजेश सागर ने बाकी के 10 केंद्रों से मिले आंकड़ों को शामिल न करने के पीछे की वजह बताने से इनकार कर दिया. एम्स में रिसर्च विभाग के डीन डॉ. एबीडे का कहना है कि उनका संस्थान इन आंकड़ों के लिए जिम्मेदार नहीं है क्योंकि इन्हें संस्थान की फैकल्टी ने तैयार नहीं किया है.
बढ़ रही है निराशा
डब्ल्यूएचओ के आंकड़े भले ही बढ़ा चढ़ा कर पेश किए गए हों लेकिन जानकारों का कहना है कि भारत में निराशा में घिरे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. विशेषज्ञ तो यह चेतावनी भी दे रहे हैं कि अगर जल्दी ही कदम न उठाए गए तो निराश लोगों की औसत उम्र घट कर 30 साल तक पहुंच जाएगी. हैदराबाद के मनोचिकित्सक डॉक्टर डेवपालन का कहना है कि 30 से 40 साल की उम्र वाले लोगों में मानसिक बीमारी का होना पहले से ही ज्यादा है. उनका कहना है कि मामूली निराशा का समय रहते अगर इलाज न हो तो वह गहरी निराश में बदल सकती है. 2009 में बैंगलोर के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस की एक रिसर्च में अवसाद में घिरे भारतीयों की औसत आयु 31 साल बताई गई.
भारत में अपराध के आंकड़ों का ब्यौरा रखने वाले संस्थान के मुताबिक 2009 में हुए एक लाख 27 हजार 151 खुदकुशी के मामलों में आठ हजार 469 ऐसे थे जो गंभीर मानसिक बीमारी से जुड़े थे. संस्थान का मानना है, "पागलपन या मानसिक बीमारी लुधियाना में 39.2, कोच्चि में 34.2 और अमृतसर में 31.3 फीसदी खुदकुशी के मामलों की प्रमुख वजह रही है."
इलाज के सुविधाओं की कमी
भारत सरकार ने 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया था. कार्यक्रम मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या और इलाज के पर्याप्त साधनों की कमी की वजह से यह कार्यक्रम शुरू किया गया लेकिन मनोचिकित्सकों की कमी के कारण इसका बहुत फायदा नहीं हो सका. जानकार मानते हैं कि भारत में इस बढ़ती बीमारी से जूझने के लिए बड़े बजट की जरूरत है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत जैसे देशों में स्वास्थ्य बजट का महज एक फीसदी ही मानसिक रोगों के हिस्से में आता है जबकि विकसित देश इस पर बजट का 10 से लेकर 18 फीसदी हिस्सा खर्च करते हैं.
भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर महज 3.5 मनोचिकित्सक हैं. इसमें भी समस्या यह है कि ज्यादातर डॉक्टर शहरों में रहते हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानसिक रोगों के इलाज की सुविधा बेहद खराब है. इसी तरह गांवों में ऐसे मनोरोगियों की संख्या काफी ज्यादा है जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं.
2010 में चेन्नई के स्टैनली मेडिकल कॉलेज ने भारत में मनोचिकित्सकों की कमी पर एक रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में गंभीर मानसिक रोग का प्रचलन करीब 6.5 फीसदी है. औसत रूप से भारत में मनोचिकित्सकों की कमी 77 फीसदी है जबकि एक तिहाई से ज्यादा लोगों के लिए यह कमी 90 फीसदी तक है. इस तरह के आंकड़े इस बात के लिए भरोसे की जमीन तैयार करते हैं कि भारत में एक करोड़ लोग निराशा और अवसाद के शिकार हैं.
रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन
संपादनः वी कुमार