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कोपेनहेगन में भारत-चीन की चाहत पूरी

१९ दिसम्बर २००९

नेताओं पर नाक़ामी के बढ़ते दबाव ने आख़िरकार ने कोपेनहेगन सम्मेलन के आख़िरी दिन देर रात एक समझौता कर ही लिया. लेकिन आज नहीं कल करेंगे की तर्ज पर हुए यह समझौता फिलहाल कागज़ी ज़्यादा लग रहा है.

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तस्वीर: UNI

समझौते के ठीक पहले शुक्रवार शाम भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिर कहा कि जो देश जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं, उन्हें इसकी सज़ा नहीं मिलनी चाहिए. ग़रीब देशों के विकास पर इसका ख़राब असर नहीं पड़ना चाहिए. उन्होंने कहा कि जब ग्लोबल वॉर्मिंग का सब पर असर पड़ रहा है तो उससे निपटने के लिए तक़नीकी मदद भी सबको मिलनी चाहिए.

इसके बाद भारतीय प्रधानमंत्री जलवायु सम्मेलन सम्मेलन के नाकाम होने की आशंका के साथ बैठक को बाय बाय करते हुए कोपेनहेगन एयरपोर्ट पहुंचे. लेकिन तभी उनसे वापस बैठक में शामिल होने की अपील की गई. मनमोहन वापस गए. फिर एक एक हॉल में मनमोहन, ओबामा, चियापाओ और सारकोज़ी समेत दिग्गज देशों के नेता आमने सामने बैठे. सबके चेहरे पर तनाव था लेकिन इसके बावज़ूद माथापच्ची चली और डील हो गई.

लेकिन सवाल अब भी अपनी जगह हैं. भारत समेत अन्य विकासशील देशों के रुख़ में अब भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है. भारत का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकासशील देश अपनी ज़िम्मेदारी निभाएंगे लेकिन उन्हें भी विकास के मुद्दे पर विकसित देशों की बराबरी का हक़ है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, "इस सम्मेलन के जो भी परिणाम निकलें, भारत अपने लिए तय किए गए लक्ष्यों का पालन करता रहेगा. हम 2022 तक सौर ऊर्जा से 20 हज़ार मेगावाट बिजली पैदा करेंगे. अगले कुछ सालों में 60 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर पेड़ लगाएंगे."

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तक़नीकी मदद दें विकसित देश: भारततस्वीर: AP

यानी भारत अगले 11 सालों में कार्बन उत्सर्जन में 20 फ़ीसदी कटौती करेगा. चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ़्रीका के साथ भारत भी इस बात पर सहमत है कि ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा नहीं बढ़ने दिया जाएगा.

कोपेनहेगन की सहमति को असल में भारत और चीन की जीत की तरह देखा जा रहा है. सम्मेलन से पहले भारत और चीन जो चाहते थे वही सम्मेलन के दौरान और उसके अंत में भी हुआ. कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हुआ. सहमति इस बात पर बनी कि, अगले महीने के अंत तक सभी देश लिखित रूप से कार्बन उत्सर्जन कम करने की अपनी योजना बताएंगे. यानी भारत, चीन, अमेरिका और ब्राज़ील जैसे देश जो दावे इस सम्मेलन से पहले कर चुके थे, उन्हीं को अब लिखकर दें देंगे.

दरअसल, तेज़ी से आर्थिक विकास कर रहे इन देशों के तर्क इतने ठोस हैं कि विकसित देश चाहकर भी कड़ा रुख नहीं अपना पा रहे हैं. इन देशों का कहना है कि अगर प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर देखी जाए तो विकसित देश ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं और अब जब इसके ख़तरे सामने आने लगे हैं तो विकास कर रहे देशों पर निगाहें गड़ा रहे हैं.

रिपोर्ट: एजेंसियां/ओ सिंह

संपादन: ए कुमार