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कानून, जज्बात, राजनीतिः अजब कहानी इंडिया की

१ सितम्बर २०११

अगर राजीव गांधी के हत्यारों को माफ किया जा सकता है तो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को क्यों नहीं? यह सवाल और इसके इर्द गिर्द की राजनीति भारत की व्यवस्था की कहानी बयान करती है.

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तस्वीर: picture alliance/dpa

ट्रैजिडीः मौत बुरी है या मौत का इंतजार? क्राइमः क्या कुछ भी राजनीति से अछूता नहीं? ड्रामाः कानून बड़ा है या जनभावना? ये सब उस कहानी के तत्व हैं जिसका नाम है भारत की व्यवस्था. इस कहानी के किरदार हैं आतंकवादी अफजल गुरू और राजीव गांधी के तीन हत्यारे. आजकल इस कहानी पर राजनेता खूब खेल रहे हैं.

क्या है कहानी

हाल ही में तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया. इस प्रस्ताव में राष्ट्रपति से अपील की गई कि राजीव गांधी की हत्या में साजिश करने वाले तीन लोगों को मिली फांसी की सजा की माफी की अपील पर फिर से विचार करें. विधानसभा चाहती है कि इस सजा को उम्रकैद में बदल दिया जाए.

Rajiv Gandhi
तस्वीर: AP

तमिलनाडु विधानसभा के इस कदम पर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक ट्वीट किया. अब्दुल्ला ने लिखा कि अगर ऐसा ही कदम कश्मीर अफजल गुरू को मिली फांसी पर उठाता, तब लोग क्या कहते. बस हंगामा हो गया.

इस कहानी के कई पहलू हैं. राजीव गांधी की हत्या के मामले में मुरुगन उर्फ श्रीहरन, टी सुतेंद्रराजा और एजी पेरारीवलन उर्फ अरिरू को मौत की सजा दी गई है. तीनों ने राष्ट्रपति से माफी की अपील की थी. बीती 11 अगस्त को राष्ट्रपति ने उनकी अपील खारिज कर दी. अब तमिलनाडु विधानसभा का कहना है कि तमिल जनता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए इस अपील पर दोबारा विचार किया जाए.

मद्रास हाई कोर्ट ने इस सजा के अमल पर रोक लगा दी है और केंद्र सरकार को एक नोटिस जारी किया है.

उधर अफजल गुरू का मुद्दा कश्मीर के लिए संवेदनशील है. अफजल गुरू को संसद पर हमले के मामले में मौत की सजा सुनाई गई है. उसकी माफी याचिका फिलहाल राष्ट्रपति के पास है. इसी महीने केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से याचिका खारिज करने की सिफारिश की है.

ट्रैजिडीः मौत बुरी है या मौत का इंतजार?

भारत में फांसी यानी मौत की सजा सिर्फ चुनिंदा मामलों में दी जाती है जिसे कानूनी जबान में "रेयरेस्ट ऑफ रेयर केस" कहा जाता है. मौत की सजा को वाकई चुनिंदा बनाने के लिए यह प्रावधान किया गया है कि सजा पाया मुजरिम राष्ट्रपति से माफी की अपील कर सकता है. इस अपील पर राष्ट्रपति केंद्र सरकार की राय लेते हैं और फिर अपना फैसला करते हैं.

Mohammad Afzal Guru
तस्वीर: AP

माफी की यह पूरी प्रक्रिया बेहद लंबी है. कई बार तो फैसला होने में 10 साल से भी ज्यादा समय लग जाता है. और इस दौरान सजा पाया व्यक्ति जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहता है. उसकी याचिका राष्ट्रपति के यहां अटकी रहती है और उसकी जिंदगी हलक में. कई लोग दलील देते हैं कि यह इंतजार मौत से भी बुरा है.

राजीव गांधी के हत्यारों की माफी की अपील पर फैसले में 11 साल लगे हैं. मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को इसी देरी के आधार पर नोटिस जारी किया है. लेकिन हाई कोर्ट के इस फैसले ने उस बहस को फिर से छेड़ दिया है कि क्या देरी को माफी का आधार बनाया जा सकता है. वैसे इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार टिप्पणी कर चुका है. 1999 में 'त्रिवेणीबेन बनाम गुजरात' सरकार मामले में उसने कहा था कि अगर माफी याचिका पर फैसले में देरी होती है तो याचक कोर्ट में जा सकता है. लेकिन कोर्ट ने यह नहीं कहा कि कितना वक्त देरी कहलाएगा. और भारतीय संविधान सरकार और राष्ट्रपति के लिए याचिका पर फैसला करने की कोई समयसीमा तय नहीं करता. सूचना के अधिकार के तहत जारी की गई एक सूचना के मुताबिक इस वक्त राष्ट्रपति के पास जितनी याचिकाएं हैं उनमें सबसे पुरानी 2005 की है. इस पर फैसले के इंतजार में झारखंड की जेल में बंद सुशील मुरमू और उसका पूरा परिवार रोज एक दर्द के साथ सोता है और एक डर के साथ जागता है.

लेकिन कानून के जानकार यह सवाल पूछते हैं कि क्या इस देरी के आधार पर उसका एक बच्चे की बलि देने का अपराध माफ किया जा सकता है?

क्राइमः क्या कुछ भी राजनीति से अछूता नहीं?

लोगों की जिंदगी और मौत पर राजनीति करना क्या अपराध से कम  है? तमिलनाडु विधानसभा ने जो किया है या उमर अब्दुल्ला जो करना चाहते हैं, कई जानकारों की नजर में वह सिर्फ राजनीतिक खेल है. तमिलनाडु में के करुणानिधि की पार्टी तमिल हितों की झंडाबरदार रहती है. श्रीलंका में तमिलों पर होने वाले जुल्मों को वह जोर शोर से उठाती है. लेकिन इस बार सत्ताधारी एआईएडीएमके ने उसका झंडा छीनने की कोशिश की है. तमिल जनता की भावनाओं के आधार पर मुख्यमंत्री जयललिता ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराया. और हर मुद्दे पर एक दूसरे की धुर विरोधी पार्टियों ने एकमत से इस प्रस्ताव का पक्ष लिया.

J. Jayalalitha
तस्वीर: AP

यह बात जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के लिए भी मौका बनकर आई. उन्होंने कश्मीरी लोगों की भावनाओं को आधार बनाकर अफजल गुरु के लिए भी माफी का आधार तलाश लिया. कश्मीर में काफी लोगों का तर्क है कि अफजल गुरु के मामले में सही तरीके से सुनवाई नहीं हुई इसलिए उसे मिली सजा न्यायसंगत नहीं है.

राष्ट्रवादी विचारधारा वाली भारतीय जनता पार्टी अफजल गुरु के मुद्दे पर काफी सक्रिय रही है. उसके नेताओं ने फौरन उमर अब्दुल्ला की आलोचना कर दी. हालांकि तमिलनाडु के मुद्दे पर वह फंसी हुई है क्योंकि राजीव गांधी के हत्यारों की वकालत उन्हीं की पार्टी के सांसद राम जेठमलानी ने की थी.

तीनों ही पक्ष जनभावना का सहारा लेकर एक दूसरे से उलट और विरोधाभासी बातें कह रहे हैं. लेकिन किस पक्ष के 'जन' की 'भावना' सबसे सही मानी जानी चाहिए?

ड्रामाः कानून बड़ा है या जनभावना?

यह भी कम दिलचस्प बात नहीं है कि जन भावना के आधार पर संवेदनशील मामलों में सजा पाए लोगों को माफी की मांग की जा रही है. इस तर्क को खींचकर काफी दूर तक ले जाया जा सकता है. मसलन, यह बात भी उठ सकती है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के आरोप खारिज कर दिए जाने चाहिए क्योंकि जनभावना उनके साथ है और उसी जनभावना ने दंगों के बाद दो बार उन्हें चुनाव जिताकर मुख्यमंत्री बिठाया है.

Omar Abdullah
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कुछ कानूनविद कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को कोर्ट ने कानूनन दोषी पाया है तो उसे जनभावना के आधार पर माफ किया जाना सही नहीं होगा. कानून विशेषज्ञ केटीएस तुलसी ने एक इंटरव्यू में कहा कि किसी भी दोषी को माफी भारत के संविधान में दिए गए आधारों पर ही दी जानी चाहिए. इसमें मानवाधिकारों को अहम माना गया है न कि जनभावना को.

रिपोर्टः विवेक कुमार

संपादनः ईशा भाटिया

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