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अरुणाचल में आंदोलन की राह पर हैं चकमा और हाजोंग

प्रभाकर मणि तिवारी
२७ जनवरी २०२१

पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में छह दशक से ज्यादा समय से रहने वाले चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठन राज्य की मतदाता सूची में नाम शामिल नहीं किए जाने के आरोप में आंदोलन की राह पर हैं.

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Bangladesch indigene Volksgruppen
तस्वीर: Sanchay Chakma

चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठनों का कहना है कि तमाम जरूरी और वैध दस्तावेज जमा करने के बावजूद चुनाव आयोग ने बिना कोई कारण बताए बहुत से लोगों के आवेदनों को खारिज कर दिया है. इन जनजातियों के 18 साल से ज्यादा उम्र के हजारों मतदाता हैं. हाल में एक सरकारी सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि राज्य में इन दोनों जनजातियों के महज 5,097 लोगों को ही मतदान का अधिकार है.

सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2015 में इन लोगों को नागरिकता देने का निर्देश दिया था. लेकिन अब तक यह मामला कानूनी दाव-पेंच और लालफीताशाही में उलझा है. चकमा और हाजोंग तबके के लोगों को नागरिकता या जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है. राज्य में पेमा खांडू के नेतृत्व वाली सरकार की दलील रही है कि इन शरणार्थियों को नागरिकता देने की स्थिति में स्थानीय जनजातियां अल्पसंख्यक हो जाएंगी.

पुराना है विवाद

अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हाजोंग जनजाति के मुद्दे पर विवाद काफी पुराना है. करीब छह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में इन दोनों जनजातियों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का निर्देश दिया था. लेकिन उसके बावजूद यह मुद्दा अब तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है. अरुणाचल प्रदेश के स्थानीय संगठन इन जनजातियों को राज्य से खदेड़ने की मांग करते रहे हैं. आखिर यह जनजातियां कहां से आई और इनके मुद्दे पर विवाद क्यों है? इसके लिए कोई छह दशक पीछे जाना होगा.

यह दोनों जनजातियां देश के विभाजन के पहले से चटगांव की पहाड़ियों (अब बांग्लादेश में) रहती थीं. लेकिन 1960 के दशक में इलाके में एक पनबिजली परियोजना के तहत काप्ताई बांध के निर्माण की वजह से जब उनकी जमीन पानी में डूब गई तो उन्होंने पलायन शुरू किया. चकमा जनजाति के लोग बौद्ध हैं जबकि हाजोंग जनजाति हिंदू है. देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भी उनको धार्मिक आधार पर काफी अत्याचर सहना पड़ा था.

साठ के दशक में चटगांव से भारत आने वालों में से महज दो हजार हाजोंग थे और बाकी चकमा. यह लोग तत्कालीन असम के लुसाई पर्वतीय जिले (जो अब मिजोरम का हिस्सा है) से होकर भारत पहुंचे थे. उनमें से कुछ लोग तो लुसाई हिल्स में पहले से रहने वाले चकमा जनजाति के लोगों के साथ रह गए. लेकिन भारत सरकार ने ज्यादातर शरणार्थियों को अरुणाचल प्रदेश में बसा दिया और इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया गया.

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शरणार्थियों की तादाद बढ़ी

वर्ष 1972 में भारत और बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के साझा बयान के बाद केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम की धारा 5 (आई)(ए) के तहत इन सबको नागरिकता देने का फैसला किया. लेकिन तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेशन (नेफा) सरकार ने इसका विरोध किया. बाद में यहां बने अरुणाचल प्रदेश की सरकार ने भी यही रवैया जारी रखा. सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि वह बाहरी लोगों को अपने इलाके में बसने की अनुमति नहीं दे सकती. अनुमति देने की स्थिति में राज्य में आबादी का अनुपात प्रभावित होगा और सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा.

अरुणाचल प्रदेश के इलाके को वर्ष 1972 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था. वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद अखिल अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) ने चकमा व हाजोंग समुदाय के लोगों को राज्य में बसाने की कवायद के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया. आप्सू का यह विरोध अब तक जारी है.

इस दौरान शरणार्थियों की तादाद लगातार बढ़ती रही. वर्ष 1964 से 1969 के दौरान राज्य में जहां इन दोनों तबके के 2,748 परिवारों के 14,888 शरणार्थी थे वहीं 1995 में यह तादाद तीन सौ फीसदी से भी ज्यादा बढ़ कर साठ हजार तक पहुंच गई. फिलहाल राज्य में इनकी आबादी करीब एक लाख तक पहुंच गई है.

ताजा विवाद

चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने के विरोध में अरुणाचल प्रदेश चकमा स्टूडेंट्स यूनियन समेत कई अन्य संगठनों ने आंदोलन शुरू किया है. राजधानी इटानगर में जारी एक बयान में यूनियन ने कहा है कि हाल में नेशनल वोटर्स डे मनाया गया है. लेकिन अरुणाचल प्रदेश में दशकों से रहने वाले चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के लिए यह बेमानी है. हजारों नए वोटरों के आवेदन बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिए गए हैं.

चकमा यूथ फेडरेशन के एक नेता आरोप लगाते हैं, "तमाम जरूरी दस्तावेज संलग्न करने के बावजूद चुनाव अधिकारियों ने बिना कोई कारण बताए हजारों आवेदनों को खारिज कर दिया है. हमारे तबके के हजारों युवकों ने 18 साल की उम्र होने के बाद बीते साल नवंबर-दिसंबर के दौरान मतदाता सूची में संशोधन के लिए चलाए गए विशेष अभियान के दौरान आवेदन किया था. इनमें से महज कुछ लोगों के नाम ही शामिल किए गए.”

इन संगठनों ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के अलावा, प्रधानमंत्री और राज्य सरकार को भी पत्र लिखने का फैसला किया है. इनका आरोप है कि भेदभाव की नीति अपनाते हुए जान-बूझ कर इन दोनों तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा रहे हैं.

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