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घरेलू हिंसा को अधिक स्वीकारती हैं कामकाजी महिलाएं: रिपोर्ट

सोनम मिश्रा
८ मार्च २०२५

बीते वर्षों में नौकरी पेशा महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन साथ में उनमें अपराध स्वीकारने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है. क्या इसे दूर कर महिलाओं को रोजगार के लिए ओर प्रेरित किया जा सकता है?

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भारतीय सेना की एक महिला अधिकारी
तस्वीर: Ravi Batra/ZUMA Press Wire/picture alliance

शहरी भारत में महिलाओं की रोजगार दर बीते छह वर्षों में 10% बढ़ी है, लेकिन इसके साथ एक चिंताजनक प्रवृत्ति भी सामने आई है. एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षित और कार्यरत महिलाएं घरेलू हिंसा को अधिक स्वीकार करती हैं, जिसका प्रमुख कारण आंतरिक अपराधबोध (इंटरनलाइज्ड गिल्ट) हो सकता है.

रिपोर्ट में पाया गया कि 32% कार्यरत महिलाएं यह मानती हैं कि पति द्वारा पत्नी पर हाथ उठाना उचित हो सकता है, जबकि गैर-कार्यरत महिलाओं में यह प्रतिशत 23.5% है. यह आंकड़ा दर्शाता है कि कई महिलाएं सामाजिक दबाव और परंपरागत भूमिकाओं के कारण स्वयं को दोषी मानती हैं और खुद को हिंसा सहने योग्य मान लेती हैं.

कोलकाता में महिला डॉक्टर रेप और मर्डर कांड का विरोध करती महिलाएं
घर के भीतर और घर के बाहर हिंसा का सामना करती हैं महिलाएंतस्वीर: Subrata Goswami/DW

अपेक्षाओं से आता है अपराधबोध

विशेषज्ञों का मानना है कि जब महिला आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती हैं, तब भी सामाजिक अपेक्षाएं उनके कंधों पर सवार रहती हैं. कार्यरत महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे न केवल अपने पेशेवर दायित्व निभाएं, बल्कि पारिवारिक और घरेलू जिम्मेदारियों को भी अकेले उठाएं. जब वे इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती, तो उनमें अपराधबोध की भावना विकसित हो जाती है, जिससे वे अपने साथ होने वाली हिंसा को उचित ठहराने लगती हैं.

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रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार के थे; शिक्षा से हिंसा की संभावना घटती है: उच्च शिक्षित और कार्यरत महिलाओं में 20% को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा, जबकि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं में यह आंकड़ा 42% था. महिलाओं की बढ़ती आर्थिक भागीदारी के बावजूद, यदि पुरुषों के लिए पर्याप्त रोजगार अवसर नहीं बढ़ते, तो यह एक सामाजिक असंतोष को जन्म दे सकता है. कार्यस्थलों पर लैंगिक भेदभाव होता है. समान योग्यता के बावजूद भी 62% परिवारों में पति की आय पत्नी से अधिक रहती है.

विशेषज्ञों का सुझाव है कि महिलाओं के लिए सुरक्षित और सहयोगी वर्क प्लेस बनाया जाए, साथ ही घरेलू कार्यों और पालन-पोषण की जिम्मेदारियों को साझा करने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए. इसके लिए नीतिगत सुधारों, शिक्षा और व्यवहारिक बदलावों की जरूरत है, ताकि महिलाएं सशक्त होकर हिंसा के खिलाफ आवाज उठा सकें और अपराध बोध से मुक्त हो सकें.

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काम करने वाली महिलाओं पर घर, लालन पालन और रोजगार की तिहरी जिम्मेदारीतस्वीर: Anil Shakya/AFP via Getty Images

केवल बुनियादी सुविधाओं की आवश्यकता

यह रिपोर्ट दर्शाती है कि शिक्षा प्रणाली में ऐसी क्षमता विकसित करनी चाहिए, जो महिलाओं को तकनीक, विश्लेषण और संवाद कौशल में सक्षम बनाएं. जिससे वह ना केवल रोजगार कर पाएंगी बल्कि बेहतर कार्य का चुनाव कर पाएंगी. जागरूकता से साथ, घर और कार्यस्थल पर महिलाओं के बोझ को कम करने के लिए घरेलू जिम्मेदारियों को ‘मदद' नहीं, बल्कि ‘साझेदारी' के रूप में बढ़ावा देना आवश्यक है.

 महिलाओं के अंदर गहरे बैठी अपराधबोध की भावना को कम करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए और ‘आदर्श पत्नी और मां' की अवास्तविक छवि को चुनौती देनी होगी. स्कूल और ऑफिस के समय में सामंजस्य बैठाने के लिए पेड आफ्टर-स्कूल चाइल्डकेयर जैसी योजनाएं शुरू करना मददगार हो सकता है. साथ ही, सरकारी और निजी ऑनलाइन शिक्षा प्लेटफॉर्म के माध्यम से महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण देकर उन्हें मैटरनिटी या चाइल्ड केयर के बाद कार्यक्षेत्र में लौटने में मदद करनी होगी.

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सामाजिक जागरूकता और सोच में बदलाव के बिना संभव होगी नहीं आगे की राहतस्वीर: ADNAN ABIDI/REUTERS

ग्रेट लेक्स इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट की प्रोफेसर एवं अनुसंधान निदेशक, डॉ. विद्या महाम्बरे ने कहा, "शहरी भारत में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन यह अभी तक वेतन, करियर ग्रोथ और घरेलू जिम्मेदारियों में समानता नहीं ला सकी है. इसके लिए रोजगार के नए अवसर, लचीली कार्य नीतियां और समाज में महिलाओं पर अत्यधिक बोझ डालने वाले मानदंडों में बदलाव की आवश्यकता है."

रिपोर्ट में भारत में महिलाओं की कार्य भागीदारी बढ़ाने के लिए कई कदम आवश्यक बताए गए. अगर महिलाओं की भागीदारी को सच में बढाना है, तो सरकार को बेहतर बुनियादी ढांचा देना होगा, कंपनियों को लचीली कार्य नीतियां बनानी होंगी और समाज को पारिवारिक जिम्मेदारियों को बराबरी से साझा करने की सोच अपनानी होगी. असली बदलाव तब आएगा जब समाज भी इस बदलाव में भागीदार बनेगा—घर में, दफ्तर में और समाज में महिलाओं की तरक्की सिर्फ उनकी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे देश की प्रगति से जुड़ी हुई है.