ईरान और अमेरिका की रंजिश की कहानी
१६ जून २०२५अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का कहना है कि इस्राएल ईरान के सुप्रीम लीडर अयातोल्लाह अल-खामेनेई को निशाना बनाना चाहता था लेकिन उन्होंने रोक दिया. दूसरी तरफ इस्राएल का कहना है कि ईरान के निशाने पर खुद डॉनल्ड ट्रंप हैं.
ईरान पर इस्राएल के हमलों की ट्रंप ने तारीफ की लेकिन अमेरिका को इससे अलग बताया और ईरान को चेतावनी भी दी. उधर ईरान ने हमलों का जवाब दिया तो अमेरिका को कहा कि वह बीच में ना आए. आखिर इस्राएल और ईरान की लड़ाई में अमेरिका कहां है?
अमेरिका और ईरान की दुश्मनी
बीसवीं सदी के ज्यादातर समय में अमेरिका और ईरान दोस्त रहे हैं. 1950 के दशक में जब शीत युद्ध ने जोर पकड़ा तो अमेरिका ने ईरान पर बहुत भरोसा किया. उस वक्त अमेरिका की मदद से वहां के शाह ने ना सिर्फ ईरान में अपना शासन मजबूत किया बल्कि तेल से धनी मध्यपूर्व के इलाके में सोवियत संघ के प्रभाव को सीमित करने में भी अमेरिका के साथी बने.
हालांकि एक समय के बाद शाह का कठोर शासन और देश में अमेरिकी दखल ईरान में अलोकप्रिय होने लगा. 1953 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआई ने एक लोकलुभावनवादी प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेघ को सत्ता से हटवा दिया. मोसादेघ ने ब्रिटेन की मिल्कियत वाली तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था. इतना ही नहीं वह शीतयुद्ध के प्रति तटस्थता का भाव रखते थे.
शाह के प्रति बढ़ती नाराजगी ने एक दिन ईरान में इस्लामिक क्रांति का रूप ले लिया और लोगों ने 1979 में उनका शासन उखाड़ फेंका. इन क्रांतिकारियों का आरोप था कि सीआईए ने शाह की खुफिया पुलिस को प्रशिक्षण दिया था. क्रांतिकारियों ने इलाके में पश्चिमी साम्राज्यवाद से लड़ने की शपथ ली और अमेरिका को "बड़ा शैतान" कहा.
क्रांति करने निकले छात्रों ने अमेरिका के दूतावास पर घेरा डाल दिया और दर्जनों राजनयिकों और दूतावासकर्मियों को एक साल से ज्यादा समय तक बंधक बना कर रखा. इसके साथ ही अमेरिका और ईरान की रणनीतिक साझेदारी खत्म हो गई. इस साझेदारी ने कई दशकों से इलाके की रूपरेखा तय की थी.
अमेरिका-ईरान की रंजिश का नतीजा
ईरान की नई सरकार अपनी इस्लामिक क्रांति को देश के बाहर इस्राएल का विरोध कर रहे शिया मुसलमानों तक तक पहुंचाना चाहती थी. उनके लिए इस्राएल पश्चिमी साम्राज्यवाद का प्रमुख अवतार था जो मध्यपूर्व के देशों में मुसलमानों का दमन कर रहा था. ईरान की इस्लामिक रेवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स ने 1980 के दशक की शुरुआत में लेबनान में हिज्बुल्लाह को खड़ा किया. अमेरिका का आरोप है कि इस लेबनानी गुट ने बेरूत में अमेरिकी दूतावास और मरीन बैरकों को बम का निशाना बनाया. इन हमलों में 300 से ज्यादा लोग मारे गए जिनमें ज्यादातर अमेरिकी थे.
हिज्बुल्लाह ने इलाके में अमेरिका के प्रमुख सहयोगी देश इस्राएल के साथ कई बार लड़ाइयां लड़ीं. हालांकि उसका कहना है कि बेरूत में अमेरिकी ठिकानों पर बम हमले उसने नहीं बल्कि किसी और गुट ने किए थे.
ईरान की अपनी शिकायतें भी थीं. 1980 में इराक ने ईरान पर हमला किया. उसने ईरानी सैनिकों पर 1982 में अपने रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल शुरु किया. उस वक्त अमेरिका इराक को राजनयिक सहयोग दे रहा था. इतना ही नहीं एक अमेरिकी जंगी जहाज ने गलती से ईरान के यात्री विमान को भी मार गिराया था. 1988 में हुई इस घटना में 290 लोगों की मौत हुई.
1990 में जब इराक ने कुवैत पर हमला कि तब अमेरिका का ध्यान इराक पर गया. इसके बाद अमेरिकी सेना ने इराक पर हमला भी किया. इधर ईरान में 1997 में सुधारवादी मोहम्मद खातमी राष्ट्रपति का चुनाव जीते. उन्होंने पश्चिमी देशों से रिश्ते सुधारना चाहा. दोनों देशों के बीच तनाव कुछ कम हुआ.
हालांकि अमेरिका में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के राष्ट्रपति बनने के बाद तनाव एक बार फिर बढ़ गया. बुश ने ईरान को इराक और उत्तर कोरिया के साथ "दुष्ट की धुरी" कहा. इस पर ईरान में काफी नाराजगी पैदा हुई. 2002 में ईरान के खुफिया परमाणु कार्यक्रम का पता चला. उसी वक्त 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया. इस युद्ध ने दोनों देशों को शिया बहुल इराक पर नियंत्रण के संघर्ष में एक दूसरे के सामने ला खड़ा किया.
मध्यपूर्व में अमेरिका और ईरान के साथी
अमेरिका और ईरान की लड़ाई मध्यपूर्व में उनके प्रॉक्सियों और सहयोगियों के जरिए चली है.
हिज्बुल्लाह के अलावा ईरान, इराक के हथियारबंद शिया गुटों का समर्थन करता है. इन गुटों ने वहां अमेरिकी सेनाओं को निशाना बनाया है. इसी तरह यमन के हूथी विद्रोहियों के गुट ने लाल सागर में अंतरराष्ट्रीय जहाजों को निशाना बनाया है. इसके अलावा फलीस्तीन के चरमपंथी गुट हमास को भी ईरान समर्थन देता है.
दूसरी तरफ अमेरिका इस्राएल का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय मददगार है. ईरान के लिए इस्राएल सबसे बड़ा दुश्मन है. इसके साथ ही अमेरिका इलाके के सुन्नी सुल्तानों का भी करीबी सहयोगी है. इन सुल्तानों की ईरान के इस्लामिक रिपब्लिक से लंबे समय से रंजिश चली आ रही है. वो ईरान को सबसे बड़ा इलाकाई खतरा मानते हैं.
सऊदी अरब और कुछ दूसरे सु्न्नी देशों ने ईरान के साथ अपनी दुश्मनी खत्म कर ली है. हालांकि उन्हें अब भी डर है कि ईरान पर अमेरिका का हमला उनके खिलाफ ईरान को हमला करने के लिए उकसाएगा.
ईरान का परमाणु कार्यक्रम
ईरान गुप्त रूप से यूरेनियम का संवर्धन कर रहा है इसकी जानकारी सामने आने के बाद बड़ा हंगामा हुआ. यूरेनियम का संवर्धन परमाणु ऊर्जा संयंत्र के ईंधन के लिए जरूरी है. यही यूरेनियम और ज्यादा संवर्धित करने के बाद परमाणु बम बनाने के लिए भी इस्तेमाल हो सकता है. ईरान में यूरेनियम संवर्धन की खबर ने अमेरिका को बेचैन कर दिया.
पश्चिमी देशों ने ईरान पर दबाव बढ़ाने के लिए प्रतिबंध लगाए और उसके परमाणु कार्यक्रम पर कई सालों तक बहस चलती रही. ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण नागरिक उद्देश्यों के लिए बताने के साथ ही यूरेनियम संवर्धन के अधिकार का दावा करता है. अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का कहना है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम के अहम तत्वों को छिपाता है और परमाणु बम बना रहा है.
2015 में ईरान और छह महत्वपूर्ण देशों के बीच समझौता हुआ. इनमें अमेरिका भी शामिल था. समझौते के तहत ईरान ने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने के लिए तैयार हुआ और अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उसे प्रतिबंधों में छूट की पेशकश की. 2018 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने डॉनल्ड ट्रंप ने यह समझौता तोड़ दिया. 2025 में फिर से राष्ट्रपति बने ट्रंप के कहने पर दोनों पक्ष एक बार फिर समझौते पर बातचीत कर रहे थे. लेकिन अब उनके बीच दूरी काफी ज्यादा बढ़ गई है और ट्रंप ने धमकी दी है कि अगर समझौता नहीं हुआ तो ईरान पर हमला होगा.
ईरान के मामले में इस्राएल का रुख
इस्राएल ईरान को अकसर अपना सबसे खतरनाक दुश्मन बताता है. इससे पहले भी ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए स्टक्सनेट कंप्यूटर वायरस और उसके वैज्ञानिकों पर हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार बताया गया है. इस्राएल ने ना तो कभी उसकी पुष्टि की ना ही उन्हें खारिज किया.
इस्राएल पर 7 अक्टूबर, 2023 के हमास के हमले के बाद ईरान और इस्राएल के बीच तनाव और बढ़ गया. पिछले साल इस्राएल ने तेहरान के सैन्य सहयोगी हिज्बुल्लाह को कड़ी चोट पहुंचाई और सीरिया और इराक में ईरानी सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया. उधर यमन में ईरान समर्थित हूथी विद्रोही इस्राएल को निशाना बनाने की कोशिश करते रहे हैं.
गुरुवार, 12 जून की रात इस्राएल के 200 से ज्यादा विमानों ने ईरान पर हमला किया. इस्राएली हमले में ईरान के सेना प्रमुख और रेवोल्यूशनरी गार्ड के प्रमुख समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की मौत हुई है. इन हमलो में ईरान के मुताबिक 200 से ज्यादा आम लोगों की भी मौत हुई है. ईरान के परमाणु ठिकानों को भी नुकसान पहुंचने की बात कही जा रही है हालांकि अभी इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.
अमेरिका ने इन हमलों में शामिल होने से इनकार किया है लेकिन डॉनल्ड ट्रंप ने इन्हें "शानदार" कहा. इतना ही नहीं ट्रंप ईरान को समझौते करने को कह रहे हैं और ऐसा नहीं होने पर और हमलों की चेतावनी दे रहे हैं. ईरान ने इन हमलों का जवाब इस्राएल पर ड्रोन और मिसाइलों दाग कर दिया है. इस्राएल और ईरान का एक दूसरे पर हमला जारी है और बार-बार यह आशंका उठ रही है कि कहीं अमेरिका और दूसरे देश भी इस लड़ाई में ना उतर जाएं.