क्या लोगों में कानून का भय नहीं रह गया है?
२२ मार्च २०२४उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इसी हफ्ते एक महिला की अपनी ससुराल में संदिग्ध मौत की खबर आई. प्रयागराज शहर के बीचोंबीच स्थित मुट्ठीगंज मोहल्ले में सोमवार देर रात उस वक्त जमकर हंगामा हुआ जब एक विवाहित महिला अंशिका केसरवानी की मौत पर उनके मायके वालों ने अंशिका के ससुराल वालों के घर को आग के हवाले कर दिया. घंटों आग पर काबू पाने की कोशिश की गई लेकिन जब तक आग बुझ पाती तब तक अंशिका के सास और ससुर की मौत हो चुकी थी. घर के तीन और सदस्य बुरी तरह से झुलस गए थे जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया.
प्रयागराज के डीसीपी (सिटी) दीपक भूकर ने मीडिया को बताया कि पुलिस को रात 11 बजे कॉल मिली थी कि अंशिका केसरवानी नाम की महिला ने आत्महत्या कर ली है. उनका कहना था, "महिला के मायके वालों और ससुराल वालों के बीच विवाद हो रहा था. पुलिस ने मौके पर पहुंच कर लोगों को शांत कराने की कोशिश की लेकिन उसी वक्त मायके पक्ष के लोगों ने ससुराल पक्ष के घर में आग लगा दी. वहां मौजूद पुलिस टीम ने पांच लोगों को बचा लिया लेकिन रात तीन बजे आग बुझने के बाद जब घर में खोजबीन की गई दो लाशें मिलीं जो मृत महिला के सास और उसके ससुर की लाशें थीं.”
इस मामले में पुलिस ने कई लोगों को हिरासत में लिया है और दोनों ही पक्षों की ओर से एफआईआर दर्ज कराई गई हैं लेकिन इस घटना से एक बार फिर ये बड़ा सवाल सामने आया है कि आखिर लोग इतने आवेश में क्यों आ जाते हैं और क्या लोगों का कानून और व्यवस्था पर भरोसा डिग रहा है?
क्यों कम हुआ कानून और व्यवस्था पर भरोसा
इलाहाबाद हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता और महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वकील सुभाष राठी कहती हैं कि ऐसी घटनाओं को देखकर मन बहुत व्यथित होता है लेकिन यह तो सही है कि न्याय में देरी और घटनाओं की जांच में होने वाली देरी भी लोगों को ऐसा करने के लिए जरूर उकसाती है.
वो कहती हैं, "कोर्ट्स की स्थिति को देखें तो इतने केस पेंडिंग हैं कि मैटर जल्दी लिस्टिंग में ही नहीं आता. लेकिन इसमें सबसे अहम रोल होता है स्थानीय थानों का क्योंकि उन्हीं को जांच करनी होती है. कई बार जांच में देरी होती है और कई बार प्रभावी लोग जांच को अपने पक्ष में भी कर लेते हैं जिसका असर ये होता है कि सही व्यक्ति भी कानून के चपेटे में आ जाता है और गलत व्यक्ति भी छूट जाते हैं जो कि न्याय की अवधारणा के बिल्कुल विपरीत है. इसलिए ऐसे मामलों में थाने वालों को तुरंत एक्शन लेना चाहिए. थाने इतना उलझा देते हैं कि न्याय मिलने में बहुत देर हो जाती है.”
दिल्ली में प्रैक्टिस करने वाले एक वरिष्ठ अधिवक्ता दीपक सिंह कहते हैं कि यह घटना बहुत हैरान करने वाली है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और इनके पीछे कहीं न कहीं कानून-व्यवस्था में खामियां और न्याय प्रक्रिया में होने वाली देरी दोनों ही शामिल हैं. दीपक सिंह का यह भी कहना है कि ‘त्वरित न्याय' जैसी निगेटिव अवधारणाओं पर जब सरकारें काम कर रही हैं तो आम आदमी भी कहीं न कहीं उससे प्रभावित हो रहा है.
वो कहते हैं, "आज देखिए, सरकारें भी अपराधियों को बिना उनका अपराध साबित हुए कथित तौर पर न्याय कर दे रही हैं. कभी किसी को गोली मार दी जा रही है, कभी उसे लंगड़ा कर दिया जा रहा है, कभी घरों पर बुलडोजर चला दिया जा रहा है. तो ये सब बिना उसका अपराध साबित हुए ही तो हो रहा है. यानी व्यवस्था में बैठे लोग ही कानून का पालन नहीं कर रहे हैं और ‘खून के बदले खून' जैसे सिद्धांतों पर चल रहे हैं तो कहीं न कहीं आम जनता पर भी उसका असर पड़ेगा ही.”
न्याय मिलने में देरी
पिछले कुछ दिनों में ऐसे ढेरों उदाहरण सामने आए हैं जब न्याय की आस में दर-दर की ठोकरें खाने के बाद भी न्याय न मिलने पर लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. पिछले महीने यूपी के ही हमीरपुर जिले में 14 और 16 साल की दो सगी बहनों ने आत्महत्या कर ली. एक हफ्ते के भीतर बच्चियों के पिता ने भी आत्महत्या कर ली. बच्चियों के परिजनों ने आरोप लगाया था कि उनके साथ ईंट भट्ठे पर बलात्कार हुआ था लेकिन पुलिस उनकी शिकायत भी दर्ज नहीं कर रही थी. शर्मिंदगी के चलते बच्चियों के पिता ने भी आत्महत्या कर ली. पुलिस अब मामले की जांच कर रही है.
सुभाष राठी कहती हैं कि न्याय में होने वाली देरी का शिकार भी अक्सर गरीब और कमजोर तबका ही होता है जो न्याय के लिए भटकता रहता है. वो कहती हैं, "पुलिस वाले तो ऐसा व्यवहार करते हैं कि मानो अभियुक्त बनते ही वो अपराधी हो गया. ऐसे में जो व्यक्ति सही है और उसे थानों के चक्कर लगाने पड़ते हैं वो डिप्रेशन में चला जाता है. हालांकि किसी भी स्थिति में व्यक्ति को इतना एग्रेसिव नहीं होना चाहिए कि वो कानून को ही हाथ में लेने लगे. इसका नुकसान दोनों ही पक्षों को होता है.”
वो कहती हैं कि न्याय में देरी के चलते ही लोगों का न्यायिक प्रक्रिया से भरोसा उठ रहा है लेकिन इसका यही तरीका है कि थाने के स्तर पर ही इस बारे में अच्छी ट्रेनिंग होनी चाहिए. उनके मुताबिक, सारी गलतियां वहीं से होती हैं, जांच में बहुत टाइम लग जाता है और लोग थक-हार कर बैठ जाते हैं.
कानून तो हैं लेकिन राजनीति है भारी
इलाहाबाद हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार के मुद्दों पर काम करने वाले कमल कृष्ण रॉय कहते हैं, "दो तरह से देखा जाए...एक तो न्याय व्यवस्था में कहां कमी है और दूसरा पोलिटिकल सिस्टम और गवर्नेंस में क्या कमी है. भारत में कुछ विशेष कानून बने हैं कमजोर वर्गों के लिए. एससी-एसटी एक्ट इत्यादि. बावजूद इसके कई बार या तो थानों से भगा दिया जाएगा या फिर कमजोर धाराएं लगाई जाएंगी. उसके बाद न्याय व्यवस्था भी काफी देरी वाली है. तो यह गुस्सा इन्हीं सबकी वजह से है. अदालत तो सबूतों के हिसाब से कार्रवाई करती है लेकिन सबूत ही इतने कमजोर होते हैं कि अदालत क्या करे. एक बात और बताएं, ये जो सरकार का बुलडोजर तरीका है वो आम लोगों को भी काफी हद तक प्रभावित कर रहा है. लोगों को लगता है कि जो कानून से नहीं तय होगा वो ताकत से तय होगा.”
प्रयागराज स्थित सेंट्रल पेडागॉजिकल इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर रहे और इस वक्त प्रोफेशनल काउंसलर के तौर पर काम कर रहे डॉक्टर कमलेश तिवारी कहते हैं कि हमारे यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की बहुत कमी है और ऐसी घटनाओं के पीछे यह भी बड़ा कारण है. उनके मुताबिक, "यहां काउंसलिंग को लेकर जागरूकता की बहुत कमी है- सरकार में भी और लोगों में भी. साथ ही अच्छे काउंसिलर भी उपलब्ध नहीं हैं. शारीरिक बीमारी को लेकर तो लोग जागरूक हैं लेकिन मानसिक और सामाजिक बीमारी को लेकर नहीं हैं. शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर इतनी भागमभाग है जबकि मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही जरूरी है, यह लोगों को नहीं मालूम.”
उनके मुताबिक, "इस समय सोशल पॉपुलेशन यानी समाज में व्यक्ति के भीतर नकारात्मक सोच बहुत ज्यादा भरी हुई है जिसकी वजह से लोग मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं और उस पर कानून में देरी एक अलग ही मुद्दा है. लोग तुरंत रेस्पॉन्स करने लगते हैं, बिना सोचे-समझे कुछ भी कर दे रहे हैं. इसके अलावा इस तरह की घटनाएं यह भी बताती हैं कि लोगों के दिमाग में स्टेटस सिंबल को लेकर भी एक द्वंद्व चलता रहता है और इसके लिए वो कुछ भी करने पर आमादा हो जाते हैं.”