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समाजजर्मनी

क्या जर्मन पेंशन सिस्टम का मुश्किल में पड़ना पहले से तय था

साबीने किनकार्त्ज अनुवादः सोनम मिश्रा
८ सितम्बर २०२५

जर्मनी की आबादी तेजी से बूढ़ी हो रही है. जिसका सीधा असर पेंशन सिस्टम पर पड़ रहा है. युवा पीढ़ी इस खर्च को उठाने में असमर्थ है. ऐसे में कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बुजुर्गों को खुद यह बोझ उठाना चाहिए.

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जर्मनी के एक पार्क में बैठे दो बुजुर्ग
जर्मनी में पेंशन सिस्टम भारी दबाव झेल रही हैतस्वीर: Sebastian Kahnert/dpa-Zentralbild/dpa/picture alliance

1955 में जब सवाल उठा कि नए जर्मन संघीय गणराज्य को किस तरह का पेंशन सिस्टम अपनाना चाहिए. तब सात बच्चों के पिता और तत्कालीन चांसलर कोनराड आडेनावर का जवाब था, "लोग बच्चे तो हमेशा पैदा करेंगे ही.”

ऐसे में आडेनावर की अगुवाई में तय हुआ कि जर्मनी पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाला मॉडल अपनाएगा यानी काम करने वाली आबादी अपनी कमाई का एक हिस्सा पेंशन फंड में डालेगी, जिससे बुजुर्गों को पेंशन दी जाएगी.  यह व्यवस्था इस आधार पर टिकी थी कि जन्म दर ज्यादा और लोगों की औसत उम्र कम रहेगी.

पेंशन सिस्टम को दुरूस्त करने के लिए जूझता जर्मनी

1955 में हर महिला औसतन 2.3 बच्चों को जन्म देती थी. यह संख्या उस समय बढ़ती जन्म दर का संकेत दे रही थी. 1964 में उस समय के विभाजित जर्मनी में 13.5 लाख बच्चों का जन्म हुआ था. 1950 से 1964 के बीच जन्म लेने वाली इस पीढ़ी को बेबी बूमर के नाम से जाना जाता है.

तेजी से बूढ़ा हो रहा जर्मनी

1970 में ऐसा दौर आया, जब गर्भनिरोधक साधन आसानी से उपलब्ध होने लगे और जन्म दर अचानक से गिरनी शुरू हो गई. 1975 में पूरे जर्मनी में सिर्फ लगभग 7.85 लाख बच्चों का जन्म हुआ. इसके बाद आने वाले सालों में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या में कोई खास बढ़ोतरी नहीं देखी गई.

जिसका सीधा मतलब था कि जर्मनी की बूढ़ी होती आबादी का पेंशन सिस्टम पर गंभीर असर पड़ने लगा. संखीय सांख्यिकी विभाग का अनुमान है कि 2039 तक आज के समय में काम कर रही आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा रिटायर हो जाएगा. इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि "संख्या के लिहाज से युवा पीढ़ी बेबी बूमर पीढ़ी की जगह नहीं ले पाएगी.”

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इसका सीधा असर जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. कुशल कामगारों की संख्या घटेगी और आडेनावर के समय बनाया गया पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाला पेंशन ढांचा अस्त-व्यस्त होने लगेगा.

कील इंस्टिट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकॉनमी के स्टेफान कूथ्स के अनुसार, "आने वाले समय में यह व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा प्रणाली पर दबाव डालेगी क्योंकि टैक्स देने वाले कम लोगों को पेंशन लेने वाले ज्यादा लोगों का खर्च उठाना पड़ेगा. जिसका संसाधनों के बंटवारे पर नकारात्मक असर पड़ेगा.”

जो कर्मचारी और कंपनियां पेंशन फंड में योगदान करती हैं, उन्हें बढ़े हुए शुल्क का सामना करना पड़ेगा. कूथ्स के मुताबिक, इससे निवेश और कुशल कामगारों वाली जगह के रूप में जर्मनी का आकर्षण घटेगा. इसके नतीजे में टैक्स दरें और बढ़ेंगी और योग्य कामगार जर्मनी छोड़कर बाहर चले जा सकते हैं.

बुजुर्ग मतदाताओं से पंगा नहीं

आडेनावर के समय शुरू हुई यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुबंध की व्यवस्था साल दर साल कमजोर हो रही है. 1962 में जहां एक पेंशन का खर्च 6 कर्मचारी मिलकर उठाते थे. वहीं 2020 तक यह घटकर सिर्फ 1.8 कर्मचारी प्रति पेंशन आ गया और यह आंकड़ा लगातार नीचे गिरता ही जा रहा है.

राजनेताओं को लंबे समय से पता है कि मौजूदा पेंशन व्यवस्था अपनी आखिरी सीमा पर है लेकिन इस ओर कोई खास कदम नहीं उठाया जा रहा है. नेता बुजुर्ग मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते हैं और उनकी पेंशन में कटौती का जोखिम नहीं लेना चाहते.  इसके अलावा दूसरा कारण यह भी है कि पिछले दस वर्षों में जर्मनी में प्रवासन बड़ी संख्या में हुआ है, जिससे इस बदलाव का असर फिलहाल कुछ हद तक धीमा है.

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2026 तक सरकार एक नया पेंशन आयोग बनाने की योजना पर काम कर रही है. यह आयोग सुधारों के लिए सुझाव देगा और आने वाले सालों में पेंशन का स्तर सुरक्षित रखने के लिए कदम भी उठाए जाएंगे. जिसके लिए कई विचार सामने भी आ चुके हैं.

जर्मन इंस्टिट्यूट फॉर इकॉनमिक रिसर्च के रिसर्चर एक नए टैक्स का प्रस्ताव रख रहे हैं, जिसे "बूमर सोली” कहा जा रहा है. यह टैक्स 1990 के दशक में लागू किए गए "सॉलिडारिटेट्ससुश्लाग” जैसा होगा, जिसे जर्मनी के दोबारा एकीकरण के लिए धन जुटाने के मकसद से लगाया गया था. इस योजना के तहत आज के पेंशनभोगियों से ही कुछ अतिरिक्त योगदान लिया जाएगा.

इस प्रस्ताव के मुताबिक अमीर पेंशनभोगियों और सरकारी कर्मचारी, जो अब काम नहीं कर रहे, उन्हें थोड़ा अतिरिक्त टैक्स देना होगा. रिसर्चरों का अनुमान है कि रिटायरमेंट इनकम, संपत्ति और कंपनी पेंशन पर 10 फीसदी का विशेष टैक्स लगाया जाए, तो यह बोझ केवल धनी 20 फीसदी पेंशनभोगी परिवारों पर पड़ेगा. या फिर उन लोगों पर जिन्हें आमदनी के हिसाब से प्रतिमाह करीब 1000 यूरो अतिरिक्त मिलता है.

जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकॉनमिक रिसर्च के निदेशक मार्सेल फ्रात्शर ने कहा, "बेबी बूमर पीढ़ी को खुद अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. उन्होंने कम बच्चे पैदा किए और उनकी काम करने की अवधि भी उनकी बढ़ी हुई जीवन प्रत्याशा के साथ नहीं बढ़ी इसलिए उन्हें आर्थिक रूप से अपना योगदान खुद से देना चाहिए.” उन्होंने यह भी कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं और बुजुर्ग की देखभाल का खर्च भी जीवन प्रत्याशा बढ़ने के साथ बहुत तेजी से बढ़ा है और यह सारा बोझ केवल युवा पीढ़ी पर ही नहीं डाला जा सकता है.

असल में, कामकाजी लोग हर साल पेंशन, स्वास्थ्य और नर्सिंग फंड में पैसा डाल रहे हैं. दशकों से सरकार को भी टैक्स का बड़ा हिस्सा पेंशन फंड में डालना पड़ा है ताकि सिस्टम चलता रह सके. आज की स्थिति यह है कि लगभग 100 अरब यूरो हर साल पेंशन फंड में जाता है और अब यह जर्मनी के संघीय बजट का सबसे बड़ा हिस्सा बन चुका है.

चारों तरफ हो रही आलोचना

हालांकि, जर्मन इंस्टिट्यूट फॉर इकॉनमिक रिसर्च के इस प्रस्ताव की ओर उत्साह काफी कम है. यह सिर्फ उन्हीं में कम नहीं है, जिन्हें अतिरिक्त टैक्स देना पड़ेगा बल्कि राजनीति और मजदूर संगठनों से भी इसका विरोध हो रहा है.

क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) की नेता और सरकार के छोटे एवं मध्यम उद्योग आयुक्त, गिट्टा कॉनमन ने आरटीएल टीवी चैनल से कहा, "मैं किसी ऐसे व्यक्ति से, जो रिटायर हो रहा है और जिसने अपनी पूरी आर्थिक योजना बना ली है, अचानक यह नहीं कह सकती कि अब हम उसका 10 फीसदी हिस्सा ले लेंगे.”

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जर्मन ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन की कार्यकारी बोर्ड सदस्य, आन्या पील ने भी इस प्रस्ताव की आलोचना की. उनके अनुसार, पेंशन में कमी को पेंशनभोगियों से ही पैसा लेकर पूरा करना कोई समाधान नहीं हो सकता है. उन्होंने कहा, "पेंशन पर इंटीग्रेशन टैक्स लगाना देश के सबसे ज्यादा आमदनी वालों को वैसे ही अछूता छोड़ देता है, जैसे किराए और पट्टे से होने वाली आय, कॉर्पोरेट मुनाफा और ब्याज को छोड़ दिया जाता है.”

जर्मनी की रणनीति गलत?

जर्मनी के यूरोपीय पड़ोसी जैसे नीदरलैंड और ऑस्ट्रिया की पेंशन व्यवस्था काफी स्थिर मानी जाती हैं. हालांकि, इन दोनों ही देशों का सिस्टम जर्मनी से काफी अलग है.

जर्मनी में केवल कर्मचारियों को ही अपनी आय का हिस्सा पेंशन फंड में जमा करना होता है. यह दर 18.6 फीसदी है, जिसमें आधा कर्मचारी और आधा नियोक्ता को देना होता है. सरकारी अधिकारी, सेल्फ एम्प्लॉयड और कुछ दूसरे पेशेवर समूह इस जिम्मेदारी में नहीं है. नतीजतन, जर्मनी में सिर्फ 79 फीसदी कर्मचारी ही पेंशन फंड में योगदान देते हैं. और यहां केवल पांच साल तक योगदान करने के बाद ही पेंशन पाने का अधिकार मिल जाता है.

जबकि दूसरे देशों में पेंशन फंड में कहीं ज्यादा पैसा आता है. जैसे ऑस्ट्रिया में लगभग सभी कामकाजी लोगों के लिए एक अनिवार्य और समान पेंशन सिस्टम है. यहां पेंशन दर 22 फीसदी है. जिसमें नियोक्ता 12 फीसदी और कर्मचारी 10 फीसदी देते हैं. यहां पेंशन पाने के लिए भी एक कर्मचारी का कम से कम 15 साल का योगदान जरूरी होता है और पेंशन पर टैक्स लगाया जाता है.

ऐसे ही नीदरलैंड में हर निवासी को एक मूल पेंशन मिलती है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि उसने देश में कितने साल गुजारे हैं. इसके लिए कामकाजी को अपनी आय का 17.9 फीसदी पेंशन फंड में डालना होता है. इसके साथ ही लगभग 90 फीसदी कर्मचारी अपने नियोक्ता के साथ मिलकर कंपनी पेंशन में योगदान देते हैं. इतना ही नहीं एक निजी पेंशन की व्यवस्था भी है जिस पर सरकार सब्सिडी देती है लेकिन यह स्वैच्छिक है. 

जर्मनी में केवल दो में से एक कर्मचारी के पास ही कंपनी पेंशन का कवरेज होता है. अब सरकार इसे बदलना चाहती है. सरकार कंपनी पेंशन को बढ़ावा देने के लिए टैक्स इंसेंटिव बढ़ाएगी और ऐसे विकल्प बनाये जायेंगे जिसमें कर्मचारी अगर अपनी तनख्वाह का एक हिस्सा कंपनी पेंशन में नहीं डालना चाहते तो उससे बाहर निकल सकते हैं.