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सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बावजूद नहीं थम रहीं सीवर में मौतें

प्रभाकर मणि तिवारी
४ फ़रवरी २०२५

उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान और राजधानी दिल्ली तक से अक्सर ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं. बीते सप्ताह कोलकाता में तीन मजदूरों की मौत इसकी ताजा कड़ी है

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भारत में सीवर की मैनुअल सफाई
भारत में सीवर की मैनुअल सफाई के दौरान हाल ही में देश के कई हिस्सों में हुईं मौतें तस्वीर: Nasir Kachroo/NurPhoto/IMAGO

सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बावजूद देश में सीवरों की मैनुअल सफाई के दौरान होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने छह शहरों - दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु और हैदराबाद - में सीवरों की मैनुअल सफाई और सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगा दी थी और सरकार से 13 फरवरी तक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था. लेकिन उसके महज तीन दिनों बाद ही कोलकाता की घटना ने सरकार की इच्छाशक्ति पर सवाल खड़ा कर दिया है.

केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2019 से 2023 यानी पांच वर्षो के दौरान देश में ऐसी घटनाओं में 377 मजदूरों की मौत हुई थी. लेकिन सफाई कर्मचारी संगठनों के मुताबिक यह आंकड़ा छह सौ से ज्यादा होने का अनुमान है.

दोषी अधिकारियों और ठेकेदार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई

सुप्रीम कोर्ट की ओर से मैनुअल सफाई पर पाबंदी के निर्देश की अनदेखी करते हुए कोलकाता नगर निगम ने लेदर कांप्लेक्स में तीन मजदूरों को सीवर की सफाई के लिए काम पर लगाया था. पहले एक मजदूर नीचे उतरा. लेकिन काफी देर तक उसके वापस नहीं आने के बाद दो और मजदूर सीवर में उतरे. कुछ देर बीतने के बाद उनकी तलाश शुरू की गई. करीब चार घंटे बाद उनके शव बरामद किए गए. उसके बाद इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गई है.

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राज्य सरकार ने मृत मजदूरों के परिजनों को 10-10 लाख का मुआवजा देने का एलान किया है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में 30 लाख के मुआवजे की बात कही थी. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश एस. रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने वर्ष 2023 में अपने एक फैसले में कहा था कि सीवर की सफाई के दौरान मजदूरों की मौत की स्थिति में केंद्र या राज्य सरकार को 30-30 लाख का मुआवजा देना होगा. इसके अलावा स्थायी रूप से विकलांग होने वालों को 20 लाख देना होगा. किसी भी स्थिति में यह रकम 10 लाख से कम नहीं हो सकती.

कोलकाता नगर निगम के मेयर फिरहाद हकीम डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह शुरुआती मुआवजा है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अध्ययन के बाद उस पर अमल किया जाएगा." लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पाबंदी के बावजूद मैनुअल सफाई के लिए मजदूरों को नीचे क्यों उतारा गया. फिरहाद हकीम कहते हैं, "कई बार मजदूर तय दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते हैं. इससे समस्या पैदा होती है. इस घटना की जांच की जा रही है और दोषी अधिकारियों और ठेकेदार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी."

पाबंदी के बावजूद जारी है प्रथा

सुप्रीम कोर्ट ने बीते सप्ताह देश के छह शहरों में इस प्रथा पर पाबंदी लगाते हुए संबंधित सरकार से 13 फरवरी तक हलफनामे के जरिए यह बताने को कहा था कि वहां मैनुअल सफाई और सिर पर मैला ढोने की प्रथा कब से और कैसे बंद की गई है. इस मामले की अगली सुनवाई 19 फरवरी को होनी है. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद आया है. उस याचिका में वर्ष 2013 के अधिनियम को पूरी तरह लागू नहीं करने की शिकायत की गई थी. अदालत ने बीते साल भी इस मुद्दे पर संबंधित पक्षों को लताड़ लगाई थी.

देश में वर्ष 1993 में पहली बार सीवरों की मैनुअल सफाई और मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगाई गई थी. उसके बीस साल बाद मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट, 2013 के जरिए इस प्रथा पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई. इस कानून में कहा गया है कि किसी परिस्थिति में अगर मजदूरों को सीवर में उतरने से पहले 27 दिशानिर्देशों का पालन करना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सख्ती से अमल करने का निर्देश दिया था. लेकिन अक्सर उनकी अनदेखी की जाती रही है. केंद्र सरकार ने बीती 29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में माना है कि देश के 775 जिलों में से 456  में अब हाथ से मैला ढोने की प्रथा नहीं है. इससे साफ है कि 319 जिलों में अब भी यह प्रथा जारी है. कोलकाता की घटना इसकी ताजा मिसाल है.

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मानव गरिमा का भी सवाल

सीवर या मैनहोल में उतरने वाले सफाई मजदूर बिना शराब पिए यह काम नहीं कर सकते. भीतर इतनी दुर्गंध भरी होती है कि किसी सामान्य व्यक्ति के लिए उसका भभका बर्दाश्त करना संभव ही नहीं है. कोलकाता की घटना में मृत तीनों मजदूरों ने भी सीवर में उतरने से पहले शराब पी रखी थी. एक मृत सफाईकर्मी सुमन सर्दार की पत्नी निशा सर्दार डीडब्ल्यू से कहती है, "नालों में होने वाली मौतें हमारी नियति बन गई हैं. इस काम से पहले मेरे पति सुबह ही शराब पी लेते थे. सीवर में जहरीली गैस के कारण यह काम करने वाले लोगों की मौत का खतरा हमेशा बना रहता है. अगर इससे बच गए तो देर-सबेर शराब जान ले लेती है. लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं? यही हमारी आजीविका है."

कोलकाता में राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (एनसीएसके) के गणेश वाल्मीकि डीडब्ल्यू से कहते हैं, "कोई भी सरकार इस प्रथा को बंद नहीं करना चाहती. उसे हमारी मौतों से खास फर्क नहीं पड़ता. इसलिए सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बावजूद किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती. किसी घटना के बाद कुछ दिनों तक यह मुद्दा गरम रहता है. लेकिन उसके बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है." वह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में और सख्ती दिखानी होगी और साथ ही राज्य सरकार को भी वर्ष 2013 के अधिनियम को लागू करने की इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा. ऐसा नहीं होने की स्थिति में मौतों का सिलसिला थमने के आसार कम ही हैं.