दुनिया भर में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के वर्तमान 16 मिशनों में करीब 1 लाख 25 हजार शांति सैनिक तैनात हैं, लेकिन असल में यूएन की अपनी कोई सेना नहीं है. जरूरत पड़ने पर संगठन अपने सभी सदस्यों देशों की सेनाओं से मदद लेता है. लाइबेरिया जैसी किसी भी गलत हरकत के कथित आरोपों की जांच की जिम्मेदारी भी उन्हीं देशों की होती है, जिनके ये सैनिक हैं. यूएन अपनी तरफ से निर्देश देता है कि "पैसों, नौकरी, सामान या किसी काम के बदले सेक्स की मांग करना मना है."
अपने स्टाफ के लोगों और उनकी मदद पा रहे लोगों के बीच शारीरिक संबंधों का समर्थन ना तो यूएन और ना ही कोई और करता है. लेकिन क्या इसका मतलब है कि लंबी अवधि तक किसी अभियान के लिए दूर भेजे जाने वाले शांति सैनिकों को किसी भी स्थानीय व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध रखने की अनुमति नहीं है? इस मामले में यूएन की नीति खुद उनके लोगों के लिए ही पूरी तरह स्पष्ट नहीं है. सवाल ये भी है कि किसी भी इंसान की तरह रोमांटिक और यौन संबंधों की आजादी के अधिकार से इन सैनिकों को कैसे वंचित किया जा सकता है. लेकिन चोरी छुपे होने के कारण सामान्य सी जरूरत या अधिकार की आड़ में मासूमों के उत्पीड़न को किसी भी हाल में सही नहीं ठहरा सकते.
एक दशक से भी अधिक हुआ जब 14 सालों से गृहयुद्ध का शिकार रहे लाइबेरिया में यूएन शांति सैनिकों की छाया में किसी तरह से शांति बहाल करने की कोशिशें चल रही थीं. साल 2003 में शांति के लिए काम करने वाली समाज सेविका लेमाह ग्बोवी ने ईसाई और मुसलमान महिलाओं का एक संगठन बनाया और युद्ध को जारी रखने वाले सेनापतियों को चुनौती दी. इसके अलावा उन्होंने महिलाओं को सेक्स हड़ताल पर जाने के लिए प्रेरित किया. ग्बोवी के नेतृत्व में महिला समूह तत्कालीन राष्ट्रपति चार्ल्स टेलर से मिला, जिन्होंने उनसे वादा किया कि वह घाना के साथ बातचीत कर संबंधों और स्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे. उनके योगदान के लिए 2011 में ग्बोवी को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि जिस सेक्स को हथियार बनाकर सदियों से महिलाओं ने युद्ध और अशांति को दूर कर शांति बहाली का रास्ता खोला है, वे खुद आज शांति दूतों के हाथों उत्पीड़ित की जा रही हैं. यह कैसी शांति है जो किसी की गरीबी और मजबूरी का फायदा उठाकर बरकरार रखी जाए या शांति की आड़ में किसी मासूम की चीख दब जाए.
ब्लॉग: ऋतिका राय