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अफगानिस्तान को भूल गई दुनिया, तालिबान के दमन से लोग परेशान

शबनम फॉन हाइन और अहमद वहीद अहमद
१८ मई २०२५

संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट कहती है कि अफगानिस्तान में तालिबान के शासन में अधिकारी धार्मिक और जातीय रूप से अल्पसंख्यकों के साथ-साथ महिलाओं के अधिकारों को भी लगातार दबा रहे हैं.

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बामियान के बुद्ध
2001 में तालिबान ने बामियान में बुद्ध की प्रतिमा को विस्फोटकों को उड़ाया था ताकि वह गैर इस्लामी प्रतीकों को नष्ट कर सकेतस्वीर: Naqeeb Ahmed/EPA/dpa/picture alliance

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में जारी कई संकटों के बीच अफगानिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों से गायब है. लेकिन वहां तालिबान सरकार में लाखों लोग अधिकारों के व्यवस्थित हनन का शिकार बन रहे हैं.

अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) के पर्यवेक्षक वहां मानवाधिकारों की स्थिति पर लगातार नजर रखते हैं और इस बारे में रिपोर्ट जारी करते हैं. यूएनएएमए ने अपनी ताजा रिपोर्ट में ना सिर्फ अफगानिस्तान में लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा और कोड़े मारे जाने का जिक्र किया है, बल्कि इस्मायली समुदाय के बढ़ते दमन के बारे में भी बताया है.

इस्मायलीवाद शिया इस्लाम की एक शाखा है जबकि अफगानिस्तान में बहुसंख्यक लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं. इस्मायली समुदाय के ज्यादातर लोग बदकशां या बागलान जैसे अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांतों में रहते हैं. बादाकशान में कम से कम ऐसे 50 मामले सामने आए हैं जहां इस्मायली लोगों को जबरदस्ती सुन्नी इस्लाम अपनाने को मजबूर किया गया. जिन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया, उन्हें शारीरिक यातनाएं और जान से मारने की धमकियां दी गईं. 

अल्पसंख्यकों का दमन

इस्मायली समुदाय के सदस्य और पेशे से प्रोफसर याकूब यासना ने डीडब्ल्यू के साथ बातचीत में कहा कि तालिबानी अधिकारी सिर्फ सुन्नी लोगों को ही मुसलमान मानते हैं. 2021 में सत्ता में आने के बाद तालिबान ने यासना पर ईशनिंदा का आरोप लगाया क्योंकि वह समाज में जागरूकता और सहिष्णुता की पैरवी करते हैं. यासना को यूनिवर्सिटी में पद छोड़ना पड़ा और अपनी सुरक्षा के लिए निर्वासन में जाना पड़ा.

तालिबान सरकार
तालिबान के राज में अफगानिस्तान लगातार मानवाधिकार समूहों के निशाने पर रहता हैतस्वीर: Hamdullah Fitrat/DW

यासना बताते हैं कि तालिबान के सत्ता में लौटने से पहले भी अफगानिस्तान में इस्मायली समुदाय के प्रति सहिष्णुता सीमित ही थी, लेकिन राजनीतिक तंत्र कम से कम उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा करता था. वह कहते हैं कि तालिबान के राज में तो सहिष्णुता लगातार घटती गई है.

इस्मायली, अफगानिस्तान में बचे चंद अल्पसंख्यक समुदायों में से एक है. अफगान मानवाधिकार कार्यकर्ता अब्दुल्ला अहमदी भी मानते हैं कि इस समुदाय के आसपास घेरा लगातार तंग होता जा रहा है. वह कहते हैं, "हमारे पास कई ऐसी रिपोर्टें आती हैं कि इस्मायली समुदाय के बच्चों को सुन्नियों के मदरसों में जाने को मजबूर किया जाता है. अगर वे इनकार करते हैं या फिर नियमित रूप से पढ़ाई करने नहीं जाते हैं तो उनके परिवारों को भारी जुर्माना भरना पड़ता है."

अहमदी की शिकायत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उनके देश में मानवाधिकारों के हनन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहा है. वह तालिबानन अधिकारियों के खिलाफ लक्षित प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं. वह कहते हैं कि "उन्हें जवाबदेह बनाना होगा."

महिलाओं की स्थिति

अफगानिस्तान में रहने वाली सभी महिलाओं के अधिकारों को दबाया जा रहा है. इसका मतलब है कि आधा समाज व्यवस्थित दमन का शिकार बन रहा है. यूएनएएमए की रिपोर्ट के अनुसार, लड़कियों को छठी कक्षा के बाद पढ़ने से रोका जा रहा है और अधिकारियों की तरफ से ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई है कि लड़कियों और महिलाओं के लिए हाई स्कूल और यूनिवर्सिटियों के दरवाजे फिर से कब खोले जाएंगे.

पश्चिमी शहर हेरात में तालिबान अधिकारियों ने कई रिक्शे जब्त कर लिए हैं और उनके ड्राइवरों को चेतावनी दी गई है कि वे ऐसी महिलाओं को ना बिठाएं जिनके साथ उनका कोई पुरुष रिश्तेदार नहीं है.

अफगानिस्तान में महिलाओं की शिक्षा मुश्किल
लड़कियों के लिए शिक्षा पाना अफगानिस्तान में लगातार मुश्किल हो रहा हैतस्वीर: OMER ABRAR/AFP

इन हालात से बचने के लिए जो अफगान पड़ोसी देशों में चले गए थे, उन्हें वहां से निकाला जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अप्रैल में पाकिस्तान से बच्चों और महिलाओं समेत 1.1 लाख लोगों को अफगानिस्तान लौटने के लिए मजबूर किया गया. ईरान से भी बड़ी संख्या में लोगों को भेजा जा रहा है.

अफगान पत्रकार मारिजिया रहीमा का कहना है, "हम हर दिन अफगानिस्तान डिपोर्ट किए जाने के खौफ में जीते हैं. वहां  मेरे बच्चों का क्या होगा?" वह कहती हैं कि अफगानिस्तान लौटने पर उन्होंने परेशानी और आतंक के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा. वह कहती हैं कि उन्होंने इसीलिए अफगानिस्तान छोड़ा था कि वहां वह तालिबान के राज में बतौर पत्रकार काम नहीं कर सकती हैं और ना ही अपनी बेटी को शिक्षा दिला सकती हैं.

अफगानिस्तान में ज्यादातर मीडिया संस्थानों पर पाबंदी लगा दी गई है या फिर सरकार ने उन्हें अपने नियंत्रण में ले लिया है. तालिबान शासन की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर गिरफ्तारी और दमन का खतरा रहता है.

तालिबान के शासन में अफगानिस्तान में सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 4.15 करोड़ की आबादी में से करीब 64 प्रतिशत लोग गरीबी में जी रहे हैं. 50 प्रतिशत लोग मानवीय सहायता पर जीवित है और 14 प्रतिशत भुखमरी का का खतरा झेल रहे हैं.

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