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जर्मनी चुनाव: आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटेगी आगामी सरकार

१७ फ़रवरी २०२५

जर्मन आम चुनाव में बस एक हफ्ता बाकी है. संभावना है कि सीडीयू के उम्मीदवार फ्रीडरिष मैर्त्स देश की कमान संभालेंगे. उनके सामने चुनौती होगी जर्मनी की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने की.

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 फोल्क्सवागन के एक प्लांट में प्रदर्शन करते कर्मचारी
फोल्क्सवागन जैसी जर्मनी की कई कंपनियों में लोगों की छंटनी हुई है. यह जर्मनी की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की तस्वीर है.तस्वीर: Moritz Frankenberg/AFP

लार्स बाउमगुएर्टेल जर्मनी के छोटे से शहर गेलजेनकिर्षेन के बचे आखिरी उद्योगपतियों में से एक हैं. वह चाहते हैं कि जर्मन नेता अपने खर्च का हिसाब दें. जर्मनी की बिगड़ी अर्थव्यस्था के प्रति उनके नाराजगी ने उन्हें ऐसा कहने पर मजबूर किया है. कई दूसरी छोटी और मझोली जर्मन कंपनियों की तरह, उनकी कंपनी भी जर्मनी की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है. फिलहाल बाउमगुएर्टेल की कंपनी भी यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से आने वाली सस्ती गैस की सप्लाई रुक जाने से प्रभावित हुई है.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स से बातचीत में उन्होंने कहा कि पूरा रुअर इलाका, खासकर गेलजेनकिर्षेन यह दिखाता है कि आर्थिक विकास के लिए बदलाव जरूरी हो गया है. लार्स की कंपनी में आज भी करीब 2,000 लोग काम करते हैं. उनकी कंपनी स्टील की कोटिंग में लगने वाली सामग्री बनाती है.  

जर्मनी की कमजोर आर्थिक स्थिति का प्रभाव इस इलाके पर दिखने लगा है. यहां की आबादी 3,90,000 से घटकर 2,60, 000 पर आ गई है. इस इलाके के बच्चों में सबसे ज्यादा गरीबी है और यहां की प्रति व्यक्ति आय दर भी जर्मनी में सबसे कम है. विश्व युद्ध के बाद जर्मनी को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने में इस इलाके का अहम योगदान रहा है.

यहां रहने वाले ज्यादातर लोगों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था अब काम नहीं कर रही और उन्हें बदलाव चाहिए. यह औद्योगिक इलाका कभी सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी यानी एसपीडी का गढ़ हुआ करता था. हालांकि आर्थिक दिक्कतों के कारण यहां के लोगों का धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की ओर झुकाव बढ़ा है. एएफडी का मानना है कि उर्जा का मुद्दा चुनाव जितवाने का सामर्थ्य रखता है.

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आर्थिक सुधारों के लिए कितनी तैयार है आने वाली सरकार

जर्मन चुनाव को बस एक हफ्ता बाकी है. जर्मनी की आर्थिक चुनौतियां आने वाली सरकार के सामने मुंह बाए खड़ी हैं. अब तक का अनुमान यही कहता है कि चांसलर पद के दावेदारों में आगे चल रहे फ्रीडरिष मैर्त्स ही देश की कमान संभालेंगे. रॉयटर्स को पार्टी के अंदरूनी स्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक सीडीयू आर्थिक सुधारों के लिए तैयार हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के मुताबकि मैर्त्स ने अब कबूल कर लिया है कि आर्थिक सुधार अब बेहद जरूरी हैं.

नई सरकार के सामने जर्मनी की अर्थव्यवस्था को संतुलित करने की चुनौती होगी. बड़ी कंपनियों में छंटनी, आसमान छूती ऊर्जा की कीमतें, महंगा किराया, घरों की कमी और कुशल कारीगरों की कमी इनमें से कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं. यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद पिछले पांच सालों में जर्मनी की अर्थव्यवस्था ने कोई खास उपलब्धियां नहीं हासिल की हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2019 से 2024 तक जर्मनी की अर्थव्यवस्था महज 0.3 फीसदी बढ़ी है. इस अवधि में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 11.4 फीसदी और चीन की अर्थव्यवस्था में 25.8 फीसदी बढ़त देखी गई है.

 

उर्जा संकट सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती

रूस और यूक्रेन युद्ध ने जर्मनी की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. युद्ध शुरू होने के बाद रूस की जर्मनी, इटली समेत कई यूरोपीय देशों को होने वाली गैस सप्लाई बंद या कम हो गई थी. इस सप्लाई के घटने से जर्मनी को करीब 60 अरब यूरो का नुकसान उठाना पड़ा था. दूसरे यूरोपीय देशों के मुकाबले जर्मनी में बिजली सबसे महंगी है. घरेलू इस्तेमाल से लेकर कारखानों तक के लिए उर्जा का खर्च कई गुना बढ़ गया. इससे अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर जर्मनी की निर्भरता बढ़ी है.

कारखाने इस वक्त इसकी सबसे ज्यादा मार झेल रहे हैं. लार्स कहते हैं कि कंपनियों को सही कीमतों पर ऊर्जा महैया कराई जानी जरूरी है. वह आगे कहते हैं,  "जर्मनी एक औद्योगिक देश है और हम उद्योग में अशांति नहीं फैलने दे सकते. "

कुशल कामगारों की कमी पहुंचा रही अर्थव्यवस्था को चोट

आप्रवासन जर्मनी के इस चुनाव का केंद्र बिंदु बन चुका है. माग्देबुर्ग और म्यूनिख में हुई घटनाओं ने आप्रवासी विरोधी भावना को हवा दी है. धुर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी इस मुद्दे को पूरी तरह भुनाने में लगी है. हालिया घटनाओं ने जर्मनी में वैध रूप से काम कर रहे लोगों के बीच भी असुरक्षा की भावना पैदा की है.

दूसरी तरफ जर्मनी की अर्थव्यवस्था इस वक्त कुशल कारीगरों की भयंकर कमी का सामना कर रही है. आईटी, बुजुर्गों के लिए केयरवर्कर, डे-केयर वर्कर और होटलों में स्टाफ की किल्लत है. जर्मन चेंबर ऑफ कॉर्मस एंड इंडस्ट्री के एक सर्वे में शामिल 43 फीसदी कंपनियों ने माना कि वे अपने खाली पदों को नहीं भर पा रही हैं. इस सर्वे में 23,000 कंपनियां शामिल थीं.

जर्मनी की संस्था इंस्टिट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 28.3 फीसदी जर्मन कंपनियों को बहुत कम कुशल कारीगर मिल पा रहे हैं. यह आंकड़ा पिछले साल 31.9 फीसदी था. हालांकि रिसर्चर क्लाउस वोलराबे के मुताबिक आने वाले वक्त में कुशल कारीगरों की कमी और बढ़ेगी ही.

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चीन से पिछड़ा जर्मनी

वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन की एंट्री का फायदा जर्मनी को मिला था. यहां की कंपनियों को कारखानों की मशीनों, केमिकल और गाड़ियों के लिए एक नया बाजार मिला. धीरे धीरे चीन में भी वे चीजें भी बनने लगीं जिनपर कभी जर्मनी का आधिपत्य था. जैसे सोलर पैनल, स्टील, इलेक्ट्रॉनिक गाड़ियां, उनकी बैटरियां वगैरह.

2024 तक जहां चीन 50 लाख गाड़ियां हर साल निर्यात करने लगा, वहीं जर्मनी का कुल निर्यात घटकर आधा हो गया. जर्मन इकोनॉमिक रिसर्च इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष मार्सेल फ्रात्सशर के मुताबिक जर्मन कपंनियां "बदलते तकनीकी ट्रेंड के साथ कदम नहीं मिला पाईं. 2010 के दशक में मिली सफलता का उन्होंने मजा लिया लेकिन वे यह नहीं समझ पाईं कि उन्हें वक्त के साथ बदलना होगा." वह कहते हैं कि जर्मनी की कंपनियों और लोगों के बीच इस वक्त घोर निराशा छाई हुई है.

कागजी कार्रवाई से छुटकारे की मांग

जर्मनी में वर्क परमिट मिलना किसी तपस्या से कम नहीं है. खासकर अगर आपको कारखाना बनाना हो या किसी तरीके का कोई उत्पादन करना हो.  उदाहरण के तौर पर अगर आपको विंड टर्बाइन बनाने के लिए परमिट चाहिए तो उसमें कई सालों का वक्त लग सकता है. जर्मन कंपनियों और अर्थशास्त्रियों की मानें तो किसी भी चीज की इजाजत लेने और जानकारी इकट्ठा करने में शामिल पेपरवर्क अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने की एक बड़ी वजह है. यह निवेशकों को भी दूर ले जाता है. 

उद्योगपतियों का मानना है कि जर्मनी में ऐसी राजनीति की जरूरत है जो कंपनियों के लिए मुफीद हो. वह कहते हैं, "पंखे बनाने वाली कंपनी के सीईओ क्लाउस गाइसडोएर्फर कहते हैं कि जर्मनी में टैलेंट की कमी नहीं है. अच्छी कंपनियां भी हैं लेकिन राजनीतिक स्तर पर जागरूकता आज भी कम है."

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आरआर/वीके (एपी, रॉयटर्स)