ईरान पर हमले की निंदा मुस्लिम देशों के दिखाने के दांत
१८ जून २०२५शुक्रवार सुबह से शुरू हुए इस्राएल के हमले में ईरान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की मौत हो चुकी है. सरकारी टीवी चैनल और नतांज के परमाणु केंद्र को नुकसान पहुंचाने और 200 से ज्यादा लोगों के मरने के बाद अब सुप्रीम लीडर अयातोल्लाह अली खामेनेई पर भी खतरा मंडरा रहा है. डॉनल्ड ट्रंप खामेनेई को मारने से इस्राएल को रोकने का दावा कर रहे हैं लेकिन यह दबाव कब तक काम आएगा कोई नहीं जानता. इस समय पूरा ईरान इस्राएल के हवाई हमलों की चपेट में है.
मंगलवार को 21 मुस्लिम देशों ने बयान जारी कर हमले की निंदा की है. इन देशों ने कहा है कि ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना ना बनाया जाए, अंतरराष्ट्रीय कानून का सम्मान हो और बातचीत के जरिए मामले का समाधान ढूंढा जाए. उन्होंने मध्यपूर्व में संघर्ष को और फैलने से रोकने की भी मांग की है. जिन मुस्लिम देशों ने बयान जारी किया है उसमें सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, ओमान, मिस्र से लेकर कुवैत, कतर, पाकिस्तान, सूडान, सोमालिया, ब्रुनेई, चाड, बहरीन, जिबूती, कुवैत, लीबिया, अल्जीरिया जैसे देश शामिल हैं. इनमें से कई देशों के इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध भी हैं.
हालांकि मुस्लिम देशों का यह गुट भले ही बहुत एकजुट और सुनने में संगठित लग रहा हो लेकिन जानकार मानते हैं कि यह सिर्फ चेहरा बचाने की कोशिश है. मध्यपूर्व के विशेषज्ञ और विश्व मामलों की भारतीय परिषद आईसीडब्ल्यूए के सीनियर फेलो फज्जुर रहमान का कहना है, "ईरान को हमलों से अब सिर्फ इस्राएल और अमेरिका ही बचा सकते हैं."
डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "इन देशों में इतना साहस नहीं है कि वे सीधे सीधे इस्राएल को चुनौती दे सकें. बयान सुनिए मगर कोई कदम उठाने की बात भूल जाइए. यह सिर्फ चेहरा बचाने की कोशिश है, वो यह दिखाना चाहते हैं कि विश्व में उनका भी कोई अस्तित्व है और वह इस तरह के मुद्दों पर बोल सकते हैं."
कोई ईरान की मदद क्यों करेगा
इस्लामी एकता एक बात है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में कोई मुस्लिम देश इस हालत में नहीं है कि ईरान की मदद के लिए इस्राएल के खिलाफ खड़ा हो सके. कई वजहों से उनकी इसमें बहुत दिलचस्पी भी नहीं है. सऊदी अरब जैसे देश तो उसके प्रतिद्वंद्वी ही रहे हैं, इराक, सीरिया और लेबनान जैसे देश पहले ही घुटने टेक चुके हैं. तुर्की और खाड़ी के देशों के अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ जुड़े कारोबारी हित उन्हें ईरान की मदद नहीं करनें देंगे. इंडोनेशिया या मलेशिया से ऐसी उम्मीद बेमानी है, तो फिर ईरान के लिए कौन लड़ने आएगा?
फज्जुर रहमान कहते हैं, "सऊदी अरब ने भले ही दिखावे की दोस्ती कर ली है लेकिन वह अपनी प्रतिद्वंद्विता भूल जाएगा ऐसा सोचना उचित नहीं है. अब वो दौर भी नहीं रहा कि मुस्लिम देश ऑयल इम्बार्गो जैसा कोई कदम उठाएं. सबसे बड़ी बात है कि ईरान की मदद करके इन देशों को क्या मिलेगा, उल्टे इस्राएल और अमेरिका की दुश्मनी गले पड़ जाएगी."
ये देश इस्लाम के नाम पर भले एकजुट होने का दम भर रहे हैं लेकिन शिया सुन्नी विवाद इनके गले की भी फांस है.
परमाणु बम का हौव्वा
ईरान के पास परमाणु बम है या हो सकता है इसी आशंका की बात उठा कर इस्राएल ने ईरान पर हमले शुरू किए हैं. ईरान ने न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफरेशन ट्रीटी यानी एनपीटी पर दस्तखत किए हैं. देश के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह अली खामेनेई पहले ही फतवा जारी कर चुके हैं उनका देश परमाणु बम नहीं बनाएगा. उनका मकसद परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है. ईरान इस तकनीक के इस्तेमाल को अपना अधिकार भी मानता है.
अमेरिका और इस्राएल लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि ईरान परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है और मध्यपूर्व में परमाणु बम का होना इलाके के लिए खतरा बन जाएगा. फज्जुर रहमान का कहना है, "अगर ईरान के पास परमाणु बम होता तो उस पर इतनी आसानी से हमला नहीं हो सकता था. कई दशकों से प्रतिबंध झेल रहा देश अपने लिए जरूरी चीजें नहीं बना पा रहा वह बम क्या बनाएगा यह तो पश्चिमी देशों का उठाया हौव्वा है."
कई सालों से अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए ईरान के परमाणु केंद्रों की नियमित निगरानी करती रही है. अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ परमाणु करार टूटने के बाद ईरान ने यूरेनियम के संवर्धन का स्तर जरूर बढ़ाया लेकिन वह बम बनाने लायक संवर्धन से अब भी दूर है.
ईरान ने पश्चिमी देशों को बातचीत की मेज पर लाने के लिए संवर्धन का स्तर बढ़ाने को धमकियों के तौर पर जरूर इस्तेमाल किया है. इस्राएल के खिलाफ दागी उसकी कुछ मिसाइलें इस्राएल के एयर डिफेंस को भेद कर वहां तक पहुंची हैं और 24 लोगों की मौत भी हुई है लेकिन ये हमले इस्राएल को रोक सकेंगे यह नहीं कहा जा सकता.
दशकों के प्रतिबंधों से पस्त ईरान
ईरान बीते कई दशकों से प्रतिबंधों की आंच झेल रहा है. देश में आर्थिक विकास से लेकर मानव विकास के तमाम मापदंडों पर उसकी हालत खराब है. वहां जाने वाले लोग बताते हैं कि उसकी हालत देख कर समय के ठहरे होने का अहसास होता है. उद्योग से लेकर व्यापार तक सबकी हालत खराब है.
फज्जुर रहमान एक साल पहले तेहरान एक कांफ्रेंस के सिलसिले में गए थे. उन्होंने बताया, "तेहरान के मध्य में मौजूद जिस इमारत में इतनी बड़ी थिंक टैंक का दफ्तर है वहां सब कुछ जैसे अंधेरे में था. सड़कों पर गाड़ियों से लेकर शहर की इमारतों तक को देख कर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ रुका हुआ हो."
अगर ईरान के पास तेल का भंडार नहीं होता और भारत जैसे देश प्रतिबंधों के बावजूद उसका तेल नहीं खरीद रहे होते तो उसकी हालत और बुरी होती.
मध्यपूर्व के देशों में ईरान के प्रॉक्सी बेदम
अमेरिका की ईरान से चिढ़ने की एक वजह लेबनान, सीरिया, इराक जैसे देशों के हथियारबंद गुटों को उसका समर्थन है. हिज्बुल्लाह, हूथी और हमास जैसे संगठन के लिए उसकी सरपरस्ती ने एक तरफ इन संगठनों को मजबूती दी है तो वहीं अमेरिका और इस्राएल के लिए मुश्किलें पैदा करती रही हैं. हालांकि इन संगठनों के साथ जाना ईरान की रणनीतिक मजबूरी भी रही है. एक तरफ इराक और दूसरी तरफ अफगानिस्तान, ईरान के लिए खतरा दोनों तरफ से है.
फज्जुर रहमान ने डीडब्ल्यू से कहा, "एक कहावत है कि अगर आप सीमा पर नहीं जाएंगे तो सीमा आप तक चली आएगी. ईरान के मामले में यही हुआ. इन संगठनों की मदद से उसने इस्राएल को अपने से दूर उलझाए रखा लेकिन अब जब सीरिया से असद की विदाई हो चुकी है, लेबनान ने घुटने टेक दिए हैं हमास की हालत आप देख ही रहे हैं तो तो फिर वही हो रहा है जिसकी आशंका थी."
इराक की सरकार में इस समय ईरान समर्थित गुट सत्ता में है लेकिन सद्दाम हुसैन के पतन के बाद अब वहां की सरकार में इतना दम नहीं है कि इस्राएल या अमेरिका के सामने खड़े हो सकें. इराक ने तो इस्लामिक स्टेट और शिया, सुन्नी और कुर्दों की लड़ाई में पहले ही बहुत बहुत कुछ गंवा दिया है. ईरान में इस्लामिक ताकत और कमजोर होगी और परमाणु केंद्रों को ध्वस्त करने के बाद इस्राएल खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करेगा. इस संघर्ष का नतीजा चाहे चाहे जो हो इतना तो तय है कि मध्यपूर्व अब पहले जैसा नहीं रहेगा.