दुनिया कई बार झेल चुकी है कारोबारी जंग की मुश्किलें
डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफ दुनिया के बाजारों में कोहराम मचा रहे हैं. हालांकि कारोबारी जंग पहली बार नहीं छिड़ी है. इसकी शुरुआत तो 19वीं सदी में ही हो गई थी.
ओपियम युद्ध (वार)
19वीं सदी के मध्य में अफीम के कारोबार को लेकर दो बार बड़ा संघर्ष हुआ. पहला संघर्ष 1839 में शुरू हुआ. ब्रिटेन ने चीन पर भारतीय अफीम के लिए बाजार खोलने का दबाव बनाया. व्यापारी ब्रिटिश थे और इसके लिए सैन्य संघर्ष के बाद 1842 में ब्रिटेन की जीत हुई. चीन को हांगकांग का क्षेत्र ब्रिटेन को देने के साथ ही पांच बंदरगाह भी वैश्विक कारोबार के लिए खोलना पड़ा और कस्टम ड्यूटी को पांच फीसदी पर सीमित करना पड़ा.
दूसरा ओपियम युद्ध
दूसरा ओपियम युद्ध 1856 से 1860 तक चला. इसमें ब्रिटेन के साथ फ्रांस भी था. इस युद्ध में भी ब्रिटिश राजशाही की जीत हुई. युद्ध के नतीजे में चीन को अपने 11 अतिरिक्त बंदरगाह विदेशी कारोबार के लिए खोलने पड़े. इसके साथ ही वह पश्चिम के साथ राजनयिक रिश्ते बनाने पर मजबूर हुआ.
विलियम मैकिनले टैरिफ
रिपब्लिकन सांसद विलियम मैकिनले ने 1890 में कानून बना कर अमेरिका में 50 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया. देश में टिन प्लेट का उत्पादन बढ़ा लेकिन कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ीं. उसी साल संसद में रिपब्लिकन पार्टी ने बहुमत खोया. दो साल बाद राष्ट्रपति को भी हार मिली. मैकिनले का कानून 1894 में खत्म कर दिया गया. 1897 में मैकिनले राष्ट्रपति बने. 1901 में उनकी हत्या हो गई. ट्रंप मैकिनले को अपनी प्रेरणा बताते हैं.
स्मूट-हाउले एक्ट
दो अमेरिकी नेताओं के नाम पर बने इस कानून के तहत 20,000 से ज्यादा चीजों पर लगभग 60 फीसदी का आयात शुल्क लगा दिया गया. कनाडा के नेतृत्व में अमेरिका के काराबोरी साझीदारों ने भी जवाबी शुल्क लगा दिया. इसके बाद 1929 से 1933 के बीच अमेरिकी निर्यात 60 फीसदी से ज्यादा नीचे गिर गया. अमेरिका में आई महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के लिए इसी कानून को जिम्मेदार समझा जाता है
जब चिकेन पर लगा आयात शुल्क
1960 के दशक के शुरुआती सालों में फ्रांस और जर्मनी ने संयुक्त रूप से अमेरिका में औद्योगिक उत्पादन वाले चिकेन के आयात पर टैक्स लगाने का फैसला किया. इसके जवाब में अमेरिका ने कई चीजों पर टैक्स लगा दिया, खासतौर से कई तरह की यूटिलिटी गाड़ियों पर जो आज भी जारी है. कथित चिकेन वार 1961 से 1964 तक चला.
पास्ता पर शुल्क से उठा विवाद
1985 में तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अमेरिकी उद्योग को संरक्षित करने के नाम पर यूरोप से आयात होने वाले पास्ता पर शुल्क बढ़ा दिया. इसका जवाब यूरोप ने मेवे और नींबू पर शुल्क लगा कर दिया. 9 महीने तक यह टकराव चलता रहा. इसके बाद अमेरिका और यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) के बीच एक समझौता हुआ.
बीफ पर पाबंदी का विवाद
1989 में ईईसी ने ग्रोथ हार्मोन से तैयार बीफ के आयात पर रोक लगा दी. अमेरिका, कनाडा और दूसरे प्रभावित देश इस मुद्दे को विश्व व्यापार संघ (डब्ल्यूटीओ) में ले गए जिसने उनके पक्ष में फैसला सुनाया. इसके बाद इन देशों ने 1999 में कई यूरोपीय चीजों पर 100 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया. आखिरकार 2009 में समझौता हुआ और शुल्कों को निलंबित किया गया. इसके बाद यूरोप ने धीरे-धीरे हार्मोन फ्री बीफ का कोटा बढ़ाया.
केला पर शुल्क
1993 में यूरोपीय संघ ने अफ्रीका में यूरोप के पूर्व उपनिवेशों के लिए प्रेफरेंशियल कस्टम रिजीम की अनुमति दी. इससे लातिन अमेरिकी देशों में केला उगाने वाली अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित प्रभावित हुआ. इन देशों ने डब्ल्यूटीओ में इसके खिलाफ शिकायत की जिसने जवाबी कार्रवाई की मंजूरी दे दी. 2012 यूरोपीय संघ और इन देशों के बीच समझौते के बाद 11 लातिन देशों के केले पर लगा आयात शुल्क खत्म हुआ.
स्टील पर शुल्क
2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 10 श्रेणियों में बंटे सामानों पर तीन साल के लिए 30 फीसदी तक का सरचार्ज लगा दिया. इनमें स्टील, मशीन वायर और वेल्डेड ट्यूब भी शामिल थे. इसकी वजह से करीब 29 फीसदी आयात प्रभावित हुआ. यूरोपीय संघ ने डब्ल्यूटीओ में शिकायत की और अमेरिकी सामानों की एक सूची जारी की जिस पर 100 फीसदी शुल्क लगाने की चेतावनी दी गई. 2003 के आखिर में बुश ने शुल्क हटा लिया.