केन्या में 7 जुलाई को क्यों होते हैं प्रदर्शन
४ जुलाई २०२५7 जुलाई ही वह तारीख थी, जब 1990 के दशक में केन्याई प्रदर्शनकारियों ने देश को तानाशाही से बाहर निकालकर जवाबदेह राजनीति की ओर ले जाने का संघर्ष शुरू किया था. अब, दशकों बाद 2025 में वही तस्वीर फिर से देखी जा रही है.
राजनीति और समाज के विश्लेषक मुतुमा किथिंजी ने डीडब्ल्यू से कहा, "2024-25 की युवा (जेन-जी) पीढ़ी के प्रदर्शन और 1990 के सबा-सबा आंदोलनों में सबसे बड़ी समानता है कि दोनों ही बेहतर नेतृत्व की मांग करते हैं.”
मानवाधिकार कार्यकर्ता वांजीरा वांजिरू ने बताया, "यही दिन था, जब लोग क्रूर तानाशाही के खिलाफ खुलकर सामने आए थे और इसी दिन हमने अपने हक की आवाज उठाई थी.”
हालांकि केन्या को 1963 में ही आजादी मिल गई थी. लेकिन इसके बावजूद 1990 तक केन्या में सिर्फ दो ही नेता सामने आए थे. जिसमें से एक थे, डैनियल अराब मोई, जिन्होंने केन्या के जातीय संघर्षों का फायदा उठाया और 12 साल तक सत्ता में रहकर देश में एक पार्टी की तानाशाही स्थापित कर दी. यह वही दौर था जब भ्रष्टाचार, लूट-खसोट और सरकारी दमन केन्या की पहचान सा बन गया.
तानाशाही शासन के खिलाफ आवाज बुलंद
देशभर में भारी विरोध-प्रदर्शन और केन्या की लगातार कमजोर होती अर्थव्यवस्था के बीच राष्ट्रपति डैनियल अराब मोई की सत्ता पर पकड़ कमजोर होती जा रही थी. ऐसे में जब तत्कालीन केन्याई सरकार ने दो कैबिनेट मंत्रियों, केनेथ मातिबा और चार्ल्स रुबिया को बिना किसी कारण जेल में डाल दिया, तब पहला सबा-सबा प्रदर्शन, 1990 की जुलाई में उभर के सामने आया. इस प्रदर्शन के मामले में 20 लोगों की गिरफ्तारी कर ली गई और 1,056 लोगों पर केस दर्ज कर दिए गए.
प्रदर्शनकारियों की मांग थी कि केन्या में बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना की जाए. भारी दबाव के बाद आखिरकार मोई सरकार को झुकना ही पड़ा. हालांकि 1992 और 1997 के चुनावों में भारी हिंसा और धांधली हुई लेकिन साथ-साथ मोई की सत्ता को भारी चुनौती का सामना भी करना पड़ा.
नैरोबी की रहने वाली एलिजा नजोरोगे का मानना है कि सबा-सबा आंदोलन ने केन्याई लोगों को काफी हौसला दिया है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह प्रदर्शन भले ही काफी अस्थिरता लेकर आए थे. लेकिन इसने लोगों को आत्मविश्वास दिया और केन्या को हमेशा के लिए बदल दिया. लोगों को समझ आया कि वह बोल सकते हैं, उनकी आवाज में ताकत है.”
विश्लेषक मुतुमा किथिंजी का कहना है कि 1990 की जो समस्याएं थीं, वह आज भी बनी हुई है. जेन-जी पीढ़ी को लगता है कि सरकार उनके सवालों के जवाबों नहीं देती है. जवाबदेही की कमी, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, लोगों का गायब होना, और अन्यायपूर्ण हत्याएं आज भी उनकी परेशानियों का कारण बनी हुई हैं.
मुतुमा समेत कई लोगों का मानना है कि 1990 के सबा-सबा आंदोलन के पास तो रुबिया और माथिबा जैसे राजनीतिक नेता थे. लेकिन आज के जेन-जी का यह आंदोलन पूरी तरह से नीतियों और मुद्दों पर आधारित है. इसमें न ही तो कोई बड़ा नेता है और न ही तो इसका कोई जातीय आधार है.
2024 में फिर गूंजा ‘सबा-सबा'
1990 की तरह ही 2024 में फिर से केन्या में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए थे. लेकिन इस बार वजह थी, वित्त विधेयक 2024, जिसमें आम लोगों पर भारी टैक्स लगाने का प्रस्ताव था. इसके खिलाफ जनता के भारी आक्रोश को देखते हुए राष्ट्रपति, विलियम रुटो को जल्द ही यह बिल वापस लेना पड़ा.
नैरोबी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेविड क्यूल का कहना है, "हम तो वही कर रहे हैं, जो हमने 1990 में किया था. कारण भी लगभग वही हैं, फर्क बस इतना है कि अब का समय तकनीकी रूप से अलग है.” उन्होंने कहा कि आज के युवा प्रदर्शनकारी ज्यादा पढ़े-लिखे भी हैं क्योंकि 2010 के संविधान में शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित किया गया था. क्यूल मानते हैं, "यह ऐसा दौर है, जिसमें युवाओं के लिए कष्ट ज्यादा है और उम्मीदें कम.”
हालांकि प्रदर्शन करने वाले लोग बदल गए हैं, लेकिन न उनके मुद्दे बदले हैं और न ही सरकार का रवैया. विरोध और उसके जवाब में दमन और ताकत का इस्तेमाल, कुछ भी तो नहीं बदला है.
2024 के मध्य में हुए प्रदर्शनों के दौरान, पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह से प्रदर्शनकारियों का सामना किया, उसमें 50 से ज्यादा लोगों की जान चली गई.
डीडब्ल्यू से बातचीत करते हुए मुतुमा ने कहा, "आज के राष्ट्रपति रुटो, उस समय भी सत्ता के करीब थे. कई लोग तो उन्हें मोई का शिष्य ही मानते हैं. 1990 में सरकार ने ताकत से जवाब दिया था और आज भी वही सिलसिला जारी है.”
इस बीच वांजीरा वांजिरू ने एक और गंभीर विषय की ओर इशारा किया. उनके मुताबिक, कितने प्रदर्शनकारी जबरदस्ती गायब कर दिए गए हैं और जिसका किसी को ठीक से पता भी नहीं है. उनका कहना है, "आजकल जबरन गायब कर देना और फिर बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के उनकी हत्या कर देना आम होता जा रहा है. मानवाधिकार और कानून, दोनों ही पूरी तरह से नजरअंदाज किए जा रहे है.”
जितने ज्यादा प्रदर्शन, उतनी ज्यादा हत्याएं
2025 में भी केन्या, खासकर राजधानी नैरोबी, में बड़े पैमाने पर युवा-नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शन जारी हैं. हालांकि, इनकी शुरुआत तो 2024 में मारे गए लोगों की याद में हुई थी. लेकिन ब्लॉगर अल्बर्ट ओजवांग की पुलिस हिरासत में संदिग्ध तरीके से हुई मौत के बाद से पुलिसिया बर्बरता के खिलाफ यह गुस्सा और बढ़ गया है.
इन प्रदर्शनकारियों पर केन्या के गृह मंत्री किपचुंबा मुरकोमेन ने आरोप लगाया है कि यह सत्ता पलटने की कोशिश कर रहे हैं. इसी आधार पर उन्होंने पुलिस को आदेश दिया है कि अगर हमला हो तो "गोली मारो” की नीति अपनाई जाए. वर्तमान केन्याई सरकार भी 1990 की मोई सरकार की तरह ही दावे कर रही है कि प्रदर्शनकारी देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं.
मुतुमा किथिंजी का कहना हैं, "किसी भी दौर में इस दावे का कोई ठोस सबूत नहीं था. प्रदर्शनकारियों को ‘देश के लिए खतरा' बताना, असल में राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने का तरीका है.”
डेविड क्यूल का मानना है कि पुलिस की कार्रवाई ने हालात को और बिगाड़ दिया है. शांतिपूर्ण प्रदर्शन अब हिंसक होने लगे हैं, लेकिन इसका कारण भी पुलिस का बर्ताव ही है.
जहां तक प्रदर्शनकारियों को डरा-धमका कर चुप कराने की बात है, उस पर वांजीरा वांजिरू ने डीडब्ल्यू के कहा, "लोगों ने अब डरना छोड़ दिया है. बल्कि जब सरकार उन्हें डराने की कोशिश करती है, तो वे और मजबूती से विरोध में खड़े नजर आते हैं.”
प्रदर्शनों पर रोक लगाने की तैयारी में सरकार
लगातार बढ़ते विरोध प्रदर्शन के बीच केन्या की संसद ने एक नया बिल पेश किया है, जिसके तहत संसद, स्टेट हाउस और अदालतों जैसे सरकारी संस्थानों के 100 मीटर के दायरे में प्रदर्शन करने पर रोक लगाने का प्रस्ताव दिया गया है.
वांजीरा वांजिरू ने डीडब्ल्यू से कहा, "यह सब लोगों की आवाज दबाने और सरकारी जवाबदेही से बचने की कोशिश है. प्रदर्शनकारियों की मांगों पर ध्यान देने की बजाए, ये लोग लोकतंत्र को और कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं.”
इस बीच कई लोगों को अब यकीन नहीं है कि 2024 में मारे गए लोगों को इंसाफ मिल सकेगा. नाम न बताने की शर्त पर एक केन्याई युवती ने डीडब्ल्यू से कहा, "अल्बर्ट ओजवांग का केस अब भी अदालत में है और रेक्स मासाई, जो पिछले साल के विरोध में मारे गए पहले व्यक्ति थे. उनका केस भी अभी तक कोर्ट में अटका हुआ है. ऐसे में जब हम उनके लिए इंसाफ मांगने सड़कों पर निकलते हैं, तो और लोग मार दिए जाते हैं. क्या उन्हें कभी इंसाफ मिलेगा?”
पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले, स्टीव मार्शा ने कहा कि आज केन्या वासियों के लिए सबसे जरूरी है कि वे अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए खड़े हों क्योंकि राष्ट्रपति रुटो की सरकार प्रदर्शन की कवरेज पर भी रोक लगाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने डीडब्ल्यू से हुई बातचीत में कहा, "हम एक ऐसे मोड़ पर हैं, जहां से अगर देश फिसला, तो शायद हम कभी भी वापस लौट नहीं पाएंगे.”