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कानून और न्यायभारत

सुप्रीम कोर्ट के पहले बौद्ध चीफ जस्टिस बने बीआर गवई

१४ मई २०२५

जस्टिस बीआर गवई ने बुधवार को भारत के 52वें चीफ जस्टिस के रूप में शपथ ली.राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें शपथ दिलाई. सीजीआई संजीव खन्ना का कार्यकाल 13 मई को खत्म हो गया था. जस्टिस गवई का कार्यकाल सिर्फ सात महीने का है.

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जस्टिस बीआर गवई को चीफ जस्टिस के रूप में शपथ दिलाई
जस्टिस बीआर गवई ने भारत के 52वें चीफ जस्टिस के रूप में शपथ लीतस्वीर: ANI

जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई दलित समुदाय से भारत के चीफ जस्टिस बनने वाले दूसरे न्यायाधीश और वे बौद्ध धर्म को मानने वाले पहले चीफ जस्टिस हैं. गवई देश के दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश भी हैं. उनसे पहले साल 2007 में जस्टिस केजी बालाकृष्णन पहले दलित सीजेआई बने थे. सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर दिए प्रोफाइल के मुताबिक, जस्टिस गवई 24 मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट जज के रूप में प्रमोट हुए थे. उनके रिटायरमेंट की तारीख 23 नवंबर 2025 है.

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई
भारत के 52वें चीफ जस्टिस बीआर गवईतस्वीर: ANI

1985 में शुरू की वकालत

जस्टिस गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ. उन्होंने 16 मार्च 1985 को वकालत शुरू की और शुरुआत में पूर्व महाधिवक्ता और हाई कोर्ट के जस्टिस राजा एस. भोंसले के साथ काम किया. साल 1987 से 1990 तक उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट में स्वतंत्र वकालत की, और इसके बाद मुख्य रूप से नागपुर बेंच में विभिन्न मामलों की पैरवी करते रहे.

संवैधानिक और प्रशासनिक कानून उनके प्रमुख क्षेत्र रहे हैं. वे नागपुर नगर निगम, अमरावती नगर निगम और अमरावती विश्वविद्यालय के स्थाई वकील रहे हैं. अगस्त 1992 से जुलाई 1993 तक वे नागपुर बेंच में सहायक सरकारी वकील और अतिरिक्त लोक अभियोजक के तौर पर नियुक्त रहे. बाद में, 17 जनवरी 2000 को उन्हें सरकारी वकील और लोक अभियोजक नियुक्त किया गया.

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सुप्रीम कोर्ट तक का सफर

14 नवंबर 2003 को वे बॉम्बे हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज बने और 12 नवंबर 2005 को स्थाई जज के रूप में प्रमोट किए गए. उन्होंने मुंबई की मुख्य बेंच के साथ-साथ नागपुर, औरंगाबाद और पणजी में भी विभिन्न प्रकार के मामलों की अध्यक्षता की. 24 मई 2019 को उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया.

चीफ जस्टिस बनने से पहले सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान, जस्टिस गवई संवैधानिक और प्रशासनिक कानून, सिविल कानून, आपराधिक कानून, वाणिज्यिक विवाद, मध्यस्थता कानून आदि विषयों से निपटने वाली लगभग 700 बेंचों का हिस्सा थे.

उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं, इनमें कई संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले भी शामिल हैं, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े हैं.

अनुच्छेद 370 से चुनावी बॉन्ड तक के फैसले

जस्टिस गवई उस बेंच का हिस्सा थे जिसने केंद्र के 2016 के नोटबंदी कदम को बरकरार रखा था और हाल ही में चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देने वाले फैसले में भी उनका योगदान था. वह पांच जजों की उस बेंच के हिस्सा थे जिसने सर्वसम्मित से केंद्र के 2019 के अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले को वैध ठहराया था. जस्टिस गवई की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में आरोपी आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदियो को जमानत दी थी.

नवंबर 2024 में उनकी अगुवाई वाली बेंच ने माना था कि उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना नागरिकों की संपत्तियों को ध्वस्त करना कानून के शासन के विपरीत है. दरअसल यह मामला राज्य सरकारों द्वारा आरोपियों की संपत्ति पर बुलडोजर एक्शन से जुड़ा था.

उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ मोदी सरनेम मामले में दोषसिद्धि पर रोक लगाने और सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को 2002 के गोधरा दंगों से संबंधित मामलों में नियमित जमानत देने का आदेश दिया था.

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वक्फ मुद्दे पर करेंगे सुनवाई

अपने छह महीने के कार्यकाल के दौरान सीजेआई गवई वक्फ अधिनियम समेत कई अहम मामलों की सुनवाई करेंगे. सीजेआई गवई द्वारा सुनवाई किए जाने वाले पहले कुछ मामलों में से एक 15 मई को होगा, जब सुप्रीम कोर्ट वक्फ अधिनियम में विवादित संशोधनों को चुनौती देने वाली महत्वपूर्ण सुनवाई करेगा.

वे सीजेआई के रूप में ऐसे समय में कार्यभार संभाल रहे हैं, जब दो मौजूदा हाई कोर्ट के जज महाभियोग की कार्यवाही का इंतजार कर रहे हैं, जिनमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर यादव, जिनकी वीएचपी की एक सभा में की गई टिप्पणियों को विभाजनकारी और पक्षपातपूर्ण माना गया था और दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज यशवंत वर्मा, जिनके आवास पर 14 मार्च को आग लगने के बाद बेहिसाब नकदी पाई गई थी.

भारतीय न्यायपालिका में मील का पत्थर

भारत के चीफ जस्टिस के रूप में जस्टिस गवई की नियुक्ति देश के न्यायिक और सामाजिक परिदृश्य में एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है. न्यायपालिका पर लंबे समय से उच्च जातियों, खासकर ब्राह्मणों का प्रभुत्व रहा है.

2018 और 2023 के बीच के आंकड़ों से पता चलता है कि हाई कोर्ट में नियुक्तियों में से केवल 17 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से थे. 2024 में संसदीय पैनल के समक्ष केंद्रीय कानून मंत्रालय की ओर से पेश हुई रिपोर्ट से यह भी पता चला कि पिछले पांच वर्षों में नियुक्त सभी हाई कोर्टों के जजों में से 79 प्रतिशत उच्च जातियों के थे.

भारतीय न्यायपालिका में सुधार के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक जजों की सामाजिक पहचान पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डाटा की कमी है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में हाई कोर्ट में नियुक्त जजों की जाति, लिंग और क्षेत्रीय पृष्ठभूमि पर डाटा एकत्र करना शुरू किया, यह जानकारी अभी भी आम लोगों की पहुंच के बाहर है.

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (एनसीएससी) जैसे संवैधानिक निकायों ने उच्च न्यायपालिका में दलितों के लगातार कम प्रतिनिधित्व के बारे में पहले ही चिंता जताई है. अपनी सिफारिशों में एनसीएससी ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की स्थापना और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों में आरक्षण के कार्यान्वयन की वकालत की है. आयोग ने उच्च न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कम से कम 22.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हासिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया था.

आमिर अंसारी, डीडब्ल्यू हिन्दी, नई दिल्ली
आमिर अंसारी डीडब्ल्यू के दिल्ली स्टूडियो में कार्यरत विदेशी संवाददाता.