जातिगत जनगणना की पूरी कहानी
भारत में जातिगत जनगणना की मांग कई दशकों से उठती रही है लेकिन इसे कराने की घोषणा पहली बार की गई है. जाति की अवधारणा से जूझने की यह नई कोशिश है. लेकिन यहां तक कैसे पहुंचा भारत?
अंग्रेजों ने की शुरुआत
भारत में जनगणना करवाने का काम ब्रिटिश काल के दौरान शुरू कराया गया था और उस समय कई बार जनगणना के दौरान जाति आधारित जानकारी भी इकट्ठा की गई. हालांकि आजादी के बाद जाति संबंधित जानकारी बटोरने का काम सिर्फ एक बार किया गया.
आजादी के बाद सिर्फ एक बार पूछी गई जाति
2011 में जब यूपीए सरकार द्वारा जनगणना करवाई गई तो उस समय उसके साथ 'सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना' भी करवाई गई. लेकिन इसका डाटा कभी जारी नहीं किया गया. 2014 में सत्ता में आई एनडीए सरकार ने कहा कि इकठ्ठा किए गए डाटा में कई त्रुटियां हैं.
कुछ राज्यों में हुई पहल
मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान विपक्षी पार्टियों ने जातिगत जनगणना करवाने की मांग उठाई. तीन राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर इसे कराया भी. बिहार में 2023 में और तेलंगाना में 2024 में जातिगत सर्वेक्षण करवाया गया. कर्नाटक में 2015 में ही इसके आदेश दिए गए थे, लेकिन इसकी रिपोर्ट 2025 में आई.
1931 के बाद डाटा नहीं उपलब्ध
राष्ट्रीय स्तर पर जाति से संबंधित डाटा 1931 के बाद जारी नहीं किया गया. एक रिपोर्ट के मुताबिक 1931 की जनगणना में भारत में 4,147 से ज्यादा जातियां और उप-जातियां पाई गई थीं.
मंडल आयोग का पड़ाव
एक और रिपोर्ट के मुताबिक 1931 की जनगणना में पाया गया था कि देश में ओबीसी समूहों की आबादी 52 प्रतिशत थी. बाद में यही आंकड़ा मंडल आयोग की ओबीसी समूहों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश का आधार बना.
क्या बदलना पड़ेगा कानून?
कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा और किसी जाति संबंधित जानकारी को इकठ्ठा करने का प्रावधान नहीं है. 2011 में यह जानकारी अलग से जुटाई की गई थी. अगर इसे जनगणना के तहत लाना है तो हो सकता है इसके लिए कानून में संशोधन करना पड़े.