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ला नीना प्रभाव के बावजूद गर्म रहा जनवरी का महीना

७ फ़रवरी २०२५

पिछला महीना अब तक के रिकॉर्ड का सबसे गर्म जनवरी का महीना था. ला नीना प्रभाव की वजह से वैश्विक तापमान में कमी आने की उम्मीद जताई जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्या जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसा हो रहा है?

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दुबई में खजूर के पेड़ के आकार में बना एक सोलर पैनल
अब तक के दशकों में, वैश्विक औसत तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई हैतस्वीर: Tyson Paul/Loop Images/picture alliance

तापमान में बढ़ोतरी का सिलसिला पिछले महीने भी जारी रहा. जनवरी में वैश्विक तापमान, औद्योगिक युग की शुरुआत से पहले के स्तर से 1.75 डिग्री सेल्सियस अधिक था. यूरोप की जलवायु निगरानी करने वाली संस्था ‘कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस' (सी3एस) ने यह जानकारी दी है.

पिछले महीने प्रकाशित हुई उनकी ‘ग्लोबल क्लाइमेट हाइलाइट्स' रिपोर्ट में बताया गया था कि 2024 अब तक के रिकॉर्ड का सबसे गर्म साल था. पिछले साल, पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में तापमान 1.6 डिग्री सेल्यिस अधिक था. उससे पहले तक 2023 सबसे गर्म साल था.

क्या टूट गया है पेरिस समझौता

साल 2015 में पेरिस में हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन में विश्व के 196 नेताओं ने सहमति जताई थी कि ग्लोबल वॉर्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं होने देंगे और वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने के लिए प्रयास करते रहेंगे.

नल पर अपना मुंह धोती एक महिला
बढ़ते वैश्विक तापमान का असर भारत में भी देखा जा रहा हैतस्वीर: Money Sharma/AFP via Getty Images

सी3एस की उपनिदेशक समांथा बर्जेस ने डीडब्ल्यू से कहा कि दुनिया अब 1.5 डिग्री के स्तर को पार करने की कगार पर है. उन्होंने कहा, "पिछले दो सालों के औसत तापमान ने पहले ही सीमा को पार कर दिया है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पेरिस समझौता टूट गया है क्योंकि समझौते के तहत दशकों के तापमान का औसत निकाला जाता है, ना कि अलग-अलग सालों का.”

हालांकि, उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि यह बढ़ोतरी दिखाती है कि हम किस ओर जा रहे हैं. उन्होंने कहा, "जलवायु प्रणाली की हमारी समझ कहती है कि वातावरण जितना गर्म होगा, खतनाक चरम मौसमी घटनाओं के होने की आशंका उतनी ही बढ़ जाएगी. यही असल में लोगों और ईकोसिस्टमों को प्रभावित करता है.”

बढ़ते तापमान से कैसे प्रभावित होता है मौसम

अब तक के दशकों में, वैश्विक औसत तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है. इस बढ़ोतरी की वजह से कई चरम मौसमी घटनाएं देखने को मिली हैं. ‘वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन' नाम की संस्था जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम के बीच के संबंध का अध्ययन करती है. इसके वैज्ञानिकों ने पिछले साल हुई ऐसी 26 घटनाओं का पता लगाया है जो बढ़ते तापमान की वजह से हुईं या तापमान की वजह से उन घटनाओं की गंभीरता बढ़ी.

उद्योग, परिवहन और हीटिंग जैसी गतिविधियों के लिए बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है. यह ग्लोबल वॉर्मिंग की एक मुख्य वजह है. हालांकि, सी3एस के वैज्ञानिकों के मुताबिक, पिछले दो सालों में अल नीनो जैसे प्राकृतिक कारकों ने भी तापमान को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई है.

प्लास्टिक की बोतल से पानी पीने की कोशिश करता एक बंदर
बढ़ती गर्मी की वजह से जानवरों को भी परेशानी होती हैतस्वीर: Sunil Ghosh /Hindustan Times/picture alliance / Sipa USA

महासागर भी हो रहे हैं गर्म

अल नीनो की स्थिति आमतौर पर हर दो से सात साल बाद बनती है. इसकी वजह से मध्य और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर गर्म हो जाता है और समुद्र की सतह का औसत तापमान बढ़ जाता है. अल नीनो की वजह से महासागरों की सतह के औसत तापमान में साल 1991-2020 के औसत की तुलना में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी देखी गई.

वैज्ञानिकों के लिए यह काफी चिंता वाली बात है क्योंकि ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी लगभग 90 फीसदी हीट को महासागर ही स्टोर करके रखते हैं. जलवायु वैज्ञानिक ब्रेंडा ऐकवुर्जल कहती हैं, "महासागरों ने पिछले 50 या 70 सालों से एक बफर जोन का काम किया है. हम उस बफर की क्षमता को पार कर रहे हैं और धरती पर चरम मौसमी घटनाओं के रूप में उसका असर भी देख रहे हैं.”

जलवायु परिवर्तन है असली समस्या

तमाम चिंताओं के बावजूद, वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है. अमेरिका की ग्रीनपीस एनजीओ के वरिष्ठ सदस्य जॉन नोएल जीवाश्म ईंधन कंपनियों के अधिकायों और उनके राजनीतिक सहयोगियों को तापमान बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार मानते हैं.

उन्होंने एक बयान में कहा, "हमें कॉर्पोरेट के इस खतरनाक भ्रम को तोड़ना होगा कि नुकसान झेले बिना जीवाश्म ईंधन का विस्तार जारी रह सकता है. इसके बजाय हमें जीरो-कार्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर ध्यान देना चाहिए जो हम सभी के सुरक्षित भविष्य के लिए जरूरी है.”

बर्जेस कहती हैं कि अगर तुरंत कदम नहीं उठाए जाते हैं तो औसत तापमान में बदलाव को डेढ़ डिग्री सेल्सियस के भीतर रखना मुश्किल होगा. हालांकि, वह यह भी कहती हैं कि दुनिया को इन लक्ष्यों को छोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि डिग्री का हर एक अंश मायने रखता है.

वह अंत में कहती हैं, "जलवायु परिवर्तन कोई भविष्य की समस्या नहीं है, जिसका हमें या हमारी आने वाली पीढ़ियों को सामना करना होगा बल्कि इस समस्या के बारे में हमें अभी बात करने की जरूरत है. हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हम जिसे भी वोट दें, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करे जिससे हम भविष्य में जलवायु परिवर्तन को कम कर सकें और मौजूदा जलवायु के हिसाब से ढल सकें.”