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समाजविश्व

मां की गर्भनाल जैसा अहम हुआ इंटरनेट

३ अगस्त २०२०

कोरोना महामारी के लॉकडाउन काल में इंटरनेट हमारे लिए कुछ ऐसा बन गया जैसे अजन्मे बच्चे के लिए मां की गर्भनाल होती है, जिससे जुड़ा रहना सर्वाइवल का सवाल होता है.

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Coronavirus | Digital | Internet | Chat |  Spanien
तस्वीर: Reuters/A. Gea

कोरोना से पहले के जमाने में जो इंटरनेट केवल दूर की चीजों के बारे में जानने का जरिया हुआ करता था, कोरोना काल में वह अपने घर के बाहर कुछ भी जानने का जरिया बन गया. भारत हो या जर्मनी, हम जैसे अनगिनत नौकरीपेशा लोगों के सामने मार्च के महीने में ‘टू बी ऑर नॉट टू बी' की ही तर्ज पर और इतने ही अहम लगने वाले दो विकल्प थे - काम पर जाएं या ना जाएं. ये सवाल भी जिंदगी और मौत के सवाल जैसा था - नौकरी करने बाहर जाएंगे तो कोरोना वायरस लग सकता है और बाहर नहीं जाएं तो वैसे ही जीवन में कठिनाइयां ले आएगा. ऐसे में इंटरनेट ने जैसे सब कुछ तबाह होने की दहलीज पर खड़े इंसान को जीवन को पटरी पर लाने का एक मौका दे दिया.

ऑफिस की मीटिंग इंटरनेट पर होने लगीं, यहां तक कि ज्यादातर काम भी धीरे धीरे करके घर से ही कर पाने की संभावनाएं तलाशी जाने लगीं. कई कंपनियों ने खास तौर पर इस दौरान बहुत तेजी से खुद को बदला और बेहतर बनाया. आजकल के समय के साथ चलने से परहेज करने वाली कई ओल्ड-फैशन कंपनियों को भी अपने तौर तरीके तेजी से बदलने पड़े. जिसके केंद्र में रहा हर जरूरी काम को इंटरनेट के साथ जोड़ना ताकि दफ्तरों से दूर रहकर भी कर्मचारी उनके लिए काम कर पाएं.

कोरोना काल में हम नौकरी से लेकर, पढ़ाई तक, अपने परिजनों और दोस्तों का हालचाल ले पाने से लेकर मनोरंजन करने तक के लिए इंटरनेट पर निर्भर रहे. ऐसा तो नहीं कि इंटरनेट हमारे जीवन में एक बड़ी जरूरत बन चुकी है, ये समझने के लिए हमें एक महामारी जैसी स्थिति की जरूरत थी लेकिन फिर भी इसने बहुत सारी बातें लोगों के सामने लाने में तो मदद की ही है.

जिस तरह की डिजीटल कनेक्टिविटी वाली दुनिया में हम रह रहे हैं उसमें यही मुद्रा चलती है. जिनके पास इंटरनेट की पहुंच नहीं है वे इस डिजीटल वर्ल्ड के नए गरीब हैं. चिंता की बात तो ये है कि जो तबका पहले से ही गरीबी की मार झेल रहा था, उसको इससे दोहरा झटका लगा. जो सरकारें किसी तरह देश के हर गरीब के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करने में लगी थीं, उन्हें जैसे एक झटके में ही उनके हाल पर छोड़ देना पड़ा. सरकारी स्कूलों को इंटरनेट से लैस करने की तमाम योजनाएं चालू होने के बावजूद अब तक हम इस हाल में नहीं पहुंचे थे कि महामारी के कारण सब कुछ ठप्प पड़ने पर भी देश के हर बच्चे-युवा को पढ़ाई लिखाई में नुकसान से बचा सकें.

Deutsche Welle DW Ritika Rai
ऋतिका पाण्डेय, डीडब्ल्यू हिन्दीतस्वीर: DW/P. Henriksen

लॉकडाउन के समय से भारत के ग्रामीण इलाकों के स्कूलों और दूसरे राज्यों से लौटे प्रवासी कामगारों के बच्चों की पढ़ाई तबसे ठप्प पड़ी है. दूसरी वजह यह भी रही कि अगर स्कूलों या शिक्षकों के पास इंटरनेट है तो तमाम बच्चों के पास उसे ग्रहण करने का कोई तरीका नहीं है. जहां खाने के लाले पड़े हों वहां मां बाप चाह कर भी अपने बच्चों की इसमें मदद नहीं कर पाते और एक बार फिर खुद को और लाचार महसूस करते हैं. 

इंटरनेट के फायदे और इस्तेमाल के नए नए तरीके खोजना तो जारी रहेगा ही लेकिन इस संकट काल ने यह भी दिखाया है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इसे पहुंचाना और खासकर गरीबों कर इसे लेकर जाना कितना जरूरी है. ऐसा ना हुआ तो गरीबों के बच्चों को स्कूल तक लाने की इतने सालों की कोशिशें पानी में चली जाएंगी. शायद इससे सरकार को देश में डिजीटल विभाजन को पाटने की कोशिशों में भी तेजी लाने की प्रेरणा मिले. ताकि अगली बार जब ऐसी कठिन स्थिति बने, तो महामारी केवल किसी खास तबके पर महाभारी ना पड़े.

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एडिटर, डीडब्ल्यू हिन्दी
ऋतिका पाण्डेय एडिटर, डॉयचे वेले हिन्दी. साप्ताहिक टीवी शो 'मंथन' की होस्ट.@RitikaPandey_