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अमेरिका को पीछे छोड़ने के लिए क्या है शी जिनपिंग की योजना

डांग युआन रवि रंजन
८ सितम्बर २०२५

चीन अपनी भव्यता, शानदार समारोहों और देशभक्ति के प्रदर्शन के साथ खुद को वैश्विक महाशक्ति के तौर पर दिखाता है. ऐसे में यह चर्चा उठी है कि क्या दूसरे देश भी उसकी शासन व्यवस्था और विकास का ‘मॉडल’ अपनाने की कोशिश करेंगे?

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बीजिंग में मंगोलिया और रूस के नेताओं के साथ बैठक में शी जिनपिंग
विजय दिवस के मौके पर शक्ति प्रदर्शन के साथ चीन ने दुनिया को संदेश देने की कोशिश की हैतस्वीर: Sergei Bobylev/Sputnik/AP Photo/picture alliance

चीन की राजधानी बीजिंग के तियानमेन चौक पर, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक मंच पर खड़े होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं. मंच के अगले हिस्से में सामने की ओर पीपुल्स रिपब्लिक के संस्थापक माओत्से तुंग की बड़ी तस्वीर लगी है. सामने हजारों सैनिक मार्च कर रहे हैं और अत्याधुनिक हथियारों का प्रदर्शन किया जा रहा है, जिनमें अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल, रॉकेट लॉन्चर, और टैंक शामिल हैं. बुधवार को ये तस्वीरें पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनी रहीं.

एशिया, मध्य पूर्व, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के 26 राष्ट्राध्यक्ष और सरकार प्रमुख इस परेड में शामिल हुए. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, स्लोवाकिया के प्रधानमंत्री रॉबर्ट फित्सो और सर्बियाई राष्ट्रपति अलेक्जांडर वुसिक बीजिंग में मौजूद थे.

इस भव्य आयोजन से साफ तौर पर पता चलता है कि चीन भविष्य में दुनिया के नियम खुद तय करना चाहता है. वह एक वैश्विक शक्ति के तौर पर अपनी स्थिति को मजबूत कर रहा है.

क्या जरूरत से ज्यादा चीन के करीब जा रहा है भारत

बर्लिन फ्री यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एमेरिटस और कंसल्टिंग फर्म ‘बर्लिन ग्लोबल एडवाइजर्स' के पार्टनर एबरहार्ड सांडश्नाइडर ने कहा, "निरंकुश शासन में, इस तरह की सैन्य परेडें कथित या वास्तविक ताकत का प्रदर्शन करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों में से एक हैं.”

विजय दिवस की सैन्य परेड के दौरान शी जिनपिंग रूस, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान के नेताओं के साथ
चीन खुद को दुनिया की महाशक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश में हैंतस्वीर: Alexander Kazakov/AFP

उन्होंने आगे कहा, "अपनी आर्थिक तरक्की से प्रेरित होकर, चीन अपनी अंतरराष्ट्रीय भूमिका का विस्तार करने की प्रक्रिया में है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में, इस प्रक्रिया में फिर से तेजी आई है.”

72 साल के शी जिनपिंग का लक्ष्य साफ है. वह चाहते हैं कि जब 2049 में पीपुल्स रिपब्लिक की 100वीं वर्षगांठ मनाई जाए, तब तक चीन एक ‘समृद्ध, मजबूत, लोकतांत्रिक, सभ्य और सुव्यवस्थित आधुनिक समाजवादी देश' बन जाए.

कई बड़ी कंसल्टिंग कंपनियों का कहना है कि अगले 15 सालों में चीन अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा.

भारत के प्रति सख्त लेकिन चीन के प्रति उदार क्यों हैं ट्रंप?

आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व साथ-साथ

चीन राजनीतिक रूप से भी अपनी नेतृत्व क्षमता बढ़ा रहा है. ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उसकी भूमिका बढ़ रही है. अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के जरिए, चीन तेजी से अपनी वैश्विक साझेदारियों को मजबूत कर रहा है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इस विशाल बुनियादी ढांचा परियोजना की शुरूआत 2013 में की थी. अब तक 153 देश इस परियोजना से जुड़ चुके हैं.

चीन दुनिया भर में अपनी पहुंच को बढ़ाने के लिए कई बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है. मसलन, चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी), केन्या में एसजीआर हाई-स्पीड ट्रेनों का निर्माण, और हाल ही में पेरू के तट पर चांकाय मेगापोर्ट का विकास.

चीन अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक साथ साधकर ग्लोबल साउथ के देशों के लिए एक नई दुनिया बनाना चाहता है. इस बीच एक और दिलचस्प बात यह देखने को मिलती है कि इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े प्रोजेक्ट के विचार भले ही सरकारें देती हैं, लेकिन चीन की अगुवाई वाले एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और दूसरे चीनी बैंक उन्हीं परियोजनाओं के लिए कर्ज देते हैं जो चीन की विदेश नीति के लक्ष्यों से मेल खाते हैं.

बीते सोमवार को एससीओ के नेताओं ने एक नया बहुपक्षीय विकास बैंक स्थापित करने का भी निर्णय लिया. हालांकि दूसरी ओर, श्रम अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के मामले में इन संस्थानों की ओर से अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन नहीं करने को लेकर चिंता बनी हुई है.

कई मामलों में, चीनी ठेकेदारों को चीनी पैसा मिलता है और वे परियोजनाओं को पूरा करने के लिए दुनिया भर में चीनी कर्मचारियों को भेजते हैं. लेकिन इसका कर्ज साझेदार देशों को चुकाना पड़ता है, जिसका बहुत नकारात्मक असर होता है. इसका सीधा मतलब है कि जैसे-जैसे उनका कर्ज बढ़ता है, चीन का उन पर नियंत्रण और भी मजबूत होता जाता है.

जो कोई भी तिब्बत के स्वायत्त क्षेत्र में मानवाधिकार उल्लंघन की आलोचना करता है या शिनजियांग प्रांत में उइगुर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ हो रही कथित ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाता है, उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है और बाहर कर दिया जाता है. वहीं, जो लोग ताइवान को चीन का एक प्रांत मानते हैं, उन्हें आर्थिक रूप से पुरस्कृत किया जाता है.

सफलता की राह पर ‘चीनी मॉडल'

पश्चिमी देश भले ही इस ‘चीनी मॉडल' की आलोचना करते हैं, लेकिन ग्लोबल साउथ के देशों में इसे काफी समर्थन मिल रहा है. नाइजीरिया के पूर्व राष्ट्रपति ओलुसेगुन ओबासांजो, अफ्रीकी देशों को कह रहे हैं कि वे ‘चीनी मॉडल' से सीखें.

ओबासांजो ने चीन की समाचार एजेंसी शिन्हुआ को बताया कि हाल के दशकों में चीन की उल्लेखनीय प्रगति ‘नाइजीरिया और अफ्रीका के लिए प्रेरणा और अवसर का स्रोत है.'

इस बीच, अमेरिका ने ट्रंप सरकार के इस कार्यकाल के दौरान अपनी लगभग सभी विदेशी सहायता पर रोक लगा दी. जबकि, इससे पहले उसे दुनिया में सबसे बड़ा दानदाता माना जाता था.

विकास एजेंसी यूएसएआईडी के बंद होने के बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले हफ्ते घोषणा की कि वह 5 अरब डॉलर की विदेशी सहायता में कटौती कर रहे हैं. जबकि, यह रकम इस साल की शुरुआत में ही अमेरिकी संसद से आवंटित की जा चुकी थी.

वैश्विक व्यवस्था में बड़ा बदलाव करने की इच्छा

बर्लिन के थिंक टैंक ‘मर्केटर इंस्टीट्यूट फॉर चाइना स्टडीज (एमईआरआईसीएस)' के रिसर्चर क्लाउस सोंग कहते हैं कि शी का लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को ‘लोकतांत्रिक' बनाना और ‘अधिपत्य' का विरोध करना है.

उन्होंने कहा, "यह तरीका दुनिया को देखने के चीन के नजरिए को लगातार बदल रहा है. हालांकि, यह तरीका किसी उदार व्यवस्था या विचारों पर आधारित नहीं है, बल्कि पूरी तरह से चीन के अपने राष्ट्रीय हितों और राज्य के नियंत्रण पर केंद्रित है.”

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सोंग ने कहा कि चीनी विदेश मंत्रालय के राजनयिक वर्तमान में ‘वैश्विक शासन' में सुधार के उद्देश्य से एक मास्टर प्लान तैयार कर रहे हैं. उनके हिसाब से यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि वैश्विक संकट लगातार बढ़ रहे हैं और देशों के बीच शक्ति का संतुलन बदल रहा है.

दूसरे देशों के बाजारों तक पहुंच बनाना चाहता है चीन

चीनी मामलों के विशेषज्ञ सांडश्नाइडर ने कहा कि उन्हें नहीं लगता है कि चीन अपनी सरकार का मॉडल दूसरे देशों को देना चाहता है. उन्होंने कहा, "70 साल से ज्यादा समय से शासन कर रही कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना एक अलग ही सिस्टम बना लिया है. मुझे ऐसा नहीं लगता कि चीन, पश्चिमी देशों की तरह लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए ठोस कदम उठा रहा है.”

उन्होंने दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने की चीन की नीति पर जोर दिया. वह कहते हैं, "चीन वही चाहता है जिसकी उसे जरूरत है. सबसे पहले वह संसाधनों तक पहुंच बनाना चाहता है और मौजूदा दौर में दूसरे देशों के बाजारों तक पहुंच उसकी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर है.”

वहीं सोंग का कहना है, "लोकतंत्र को आंतरिक और बाहरी, दोनों तरह की चुनौतियों से बचाने की जरूरत है. यह तब खतरे में पड़ जाता है, जब सत्तावादी शासन का विस्तार होता है और यह मांग की जाती है कि हम लोकतंत्र को छोड़कर निरंकुश शासन को अपनाएं.”

अपने-आप में ही उलझा हुआ है यूरोप

कई चुनौतियों के बावजूद, इस बात की बेहद कम गुंजाइश है कि यूरोप किसी तरह की कार्रवाई करेगा. ट्रंप के नेतृत्व वाली मौजूदा अमेरिकी सरकार लगातार अप्रत्याशित फैसले ले रही है. इस वजह से यूरोप अपने-आप में ही उलझा हुआ है.

यूरोप को सबसे पहले अपनी सीमाओं के भीतर लोकतंत्र को बचाना होगा, क्योंकि यूरोपीय संघ के कई देश दक्षिणपंथी चरमपंथियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

यूरोपीय संघ के 27 देशों में से सात में पहले से ही दक्षिणपंथी लोकलुभावन पार्टियों की सरकारें हैं. यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति जर्मनी अब पूर्व यानी एशिया की ओर ज्यादा ध्यान दे रहा है.

जर्मनी और चीन के बीच मजबूत आर्थिक संबंध भी हैं. फिर भी, जर्मन चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स ने अगस्त के अंत में एक पार्टी सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा, "जो कोई भी वास्तव में हमारी चुनौतियों को समझना चाहता है, उसे सिर्फ चीन ही नहीं, बल्कि अन्य एशियाई देशों की भी यात्रा करनी चाहिए. एशिया में बहुत तेजी से विकास हो रहा है. वहां के देशों में दुनिया का नेतृत्व करने की लालसा भी है. इनमें चीन भी शामिल है.”