दिमाग के लिए एक नई भाषा सीखना कितना मुश्किल?
१२ अगस्त २०२५इंसान एक लाख साल पहले से बोलना शुरू कर चुका था. लेकिन आज के समय में हमारी भाषा सिर्फ बातचीत का साधन नहीं रह गया है. बल्कि यह समाज में घुलने-मिलने और रोजगार के अवसर पाने का तरीका भी बन गया है. नई भाषा सीखने का हर किसी का अनुभव अलग होता है, कुछ लोग कई भाषाएं बोल लेते हैं, तो कुछ को यह काफी मुश्किल लगता है. जैसे हमारा दिमाग हमारी सभी क्रियाओं को नियंत्रित करता है, वैसे ही भाषा सीखने में भी दिमाग के अन्य हिस्सों के साथ दो मुख्य हिस्से काम करते हैं, ब्रॉका एरिया और वर्निके एरिया. यह दोनों दिमाग के बाएं हिस्से में होते हैं. ब्रॉका एरिया बोलने में मदद करता है और वर्निके एरिया भाषा को समझने में.
हालांकि, यह प्रक्रिया सबके लिए समान नहीं होती, और सिर्फ किताब खोलकर पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, दिमाग के सीखने के तरीके को समझना और उसके अनुसार ढलना जरूरी है. आजकल न्यूरो लैंग्वेज मेथड को भाषा सीखने के तरीके के तौर पर अपनाया जा रहा है, ताकि लोग आसानी से नई भाषा सीख सकें और अपनी क्षमताओं के अनुसार नए हालातों में बेहतर तरीके से ढल सकें.
चींटियों जैसे काम करते है दिमाग के तंत्र
सन 1949 में मनोवैज्ञानिक डॉनल्ड हेब ने पावलोव के "एसोसिएटिव लर्निंग रूल” को समझाया कि दिमाग की कोशिकाएं किस तरह नई चीजें या आदतें सीखती हैं. हेब के अनुसार जब दो न्यूरॉन्स एक साथ सक्रिय होते हैं और एक ही समय पर सिग्नल भेजते हैं, तो उनके बीच का संबंध यानी सिनैप्स मजबूत हो जाता है, जिससे कि सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है.
हमारे दिमाग में लगभग 86 अरब न्यूरॉन्स होते हैं, जो कि खरबों सिनैप्स के जरिए जुड़े होते हैं. विज्ञान के अनुसार यह इंसानी शरीर की सबसे जटिल संरचना है. सीखने की प्रक्रिया में हमारा दिमाग हर नई जानकारी और अनुभव के अनुसार बदलता है. जितनी बार हम कुछ नया सीखते हैं, हमारा दिमाग उतनी बार नए कनेक्शन बनाता है. न्यूरॉन्स नए कनेक्शन बनाते हैं, जिससे नए कनेक्शन मजबूत होते हैं और जिन पुराने कनेक्शनों का इस्तेमाल नहीं होता, उन्हें हटा भी देते है. जिससे कि पुरानी आदतें हमें इतने अच्छे से याद नहीं रहती है. यही प्रक्रिया है, जिससे इंसानी दिमाग कई भाषाएं बोलना सीख सकता है, संगीत के वाद्य बजा सकता है और नई सभ्यताओं में बस सकता है.
चीन में तेजी से आगे बढ़ रहा है दिमाग में चिप डालने का प्रोजेक्ट
17 अप्रैल को प्रतिष्ठित 'साइंस' जर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ जिसमें न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने एक नई तकनीक से चूहों के दिमाग की गतिविधि देख कर नई जानकारी सामने रखी थी. उन्होंने पाया कि सीखने के दौरान न्यूरॉन्स केवल एक ही नियम का पालन नहीं करते, बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों के सिनैप्स अलग-अलग तरीके से काम करते हैं. जिससे कि यह पता चलता है कि केवल अपनी "स्थानीय" जानकारी तक पहुंच रखने वाले सिनैप्स असल में सारी जानकारी मिलाकर नए काफी जटिल व्यवहार को आकार देते हैं. यह ठीक वैसा है जैसे चींटियां, जो अपने-अपने छोटे काम करती हैं, बिना यह जाने कि पूरी कॉलोनी का लक्ष्य कितना बड़ा है. और छोटी-छोटी चींटियों का थोड़ा-थोड़ा काम मिलकर एक बड़ी कॉलोनी को आकार दे देता है.
नई भाषा सीखने के लिए दिमाग का सहज होना जरूरी
सीखने की प्रक्रिया दिमाग में इतनी आसानी से नहीं हो जाती, बल्कि इसके दौरान न्यूरॉन्स के बीच मौजूद छोटे-छोटे अंतर यानी सिनैप्स सीखने के दौरान अपनी बनावट, संवेदनशीलता और संख्या बदलते रहते हैं. जिस कारण हमारा दिमाग केवल उसी चीज पर ध्यान देता है, जो हमारे लिए अधिक मायने रखती है और यह तय करने में हमारी भावनाएं सबसे ज्यादा हमारे दिमाग की मदद करती हैं.
जैसे कि अगर कुछ आपको उत्साहित करता, डराता या चौंकाता है, तो दिमाग उसे "महत्वपूर्ण” मानकर याद रखने की कोशिश करता है. लेकिन चिंता दिमाग की याददाश्त को कमजोर कर सकती है और लगातार तनाव दिमाग के हिप्पोकैम्पस नामक हिस्से को नुकसान पहुंचा कर यादें बनाने की क्षमता को घटा सकता है.
बेंगलुरु में क्वाड्रिगो सेंटर फॉर लर्निंग एक्सीलेंस की सीईओ आना कुंट न्यूरो-लैंग्वेज कोचिंग के तरीके को अपने टीचर ट्रेनिंग कोर्स में और छात्रों को जर्मन सीखाने में इस्तेमाल करती हैं. उनके अनुसार एक नई भाषा सीखने के लिए, "सबसे पहले जरूरी है कि हम यह सुनिश्चित करें कि प्रतिभागी या विद्यार्थी ऐसे माहौल में हों जहां उन्हें डर महसूस ना हो क्योंकि हमारे दिमाग में "अमिग्डाला” नाम का एक छोटा-सा हिस्सा अगर सक्रिय हो जाता है, तो हमारा दिमाग कोई भी नई चीज सीखने के लिए तैयार नहीं होता. इसलिए मैं हमेशा सबसे पहले क्लास में अच्छा और सहज माहौल बनाने पर ध्यान देती हूं, जो दिमाग के लिए सीखने का अनुकूल माहौल बनाने का तरीका है.”
क्या सच में बचपन में नई भाषा सीखना ज्यादा आसान होता है?
पुरानी यादें (यानी लॉन्ग-टर्म मेमोरी) दिमाग में बनने वाले मजबूत सिनैप्स का नतीजा होती है. एक ही चीज को बार-बार करने से न्यूरॉन्स (दिमागी कोशिकाओं) के बीच का जुड़ाव मजबूत होता है. और नई जानकारी धीरे-धीरे दिमाग में स्थायी पैटर्न का रूप ले लेती है.
दिमाग समय के साथ-साथ बदलता है. बचपन से बुढ़ापे तक सीखने की प्रक्रिया में कई बदलाव आते है. बचपन में दिमाग बेहद सक्रिय होता है. सिनेप्टिक कनेक्शंस (न्यूरॉन्स के बीच के जोड़) बहुत तेजी से बढ़ते हैं और लगभग 2-3 साल की उम्र में अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं. जिसके बाद प्रूनिंग होती है यानी जो कनेक्शन इस्तेमाल नहीं होते, वे हटा दिए जाते हैं और जो बार-बार इस्तेमाल होते हैं, वे और मजबूत होते जाते हैं. हालांकि, व्यस्क अवस्था में दिमाग अपनी प्लास्टिसिटी (लचीलापन) तो बनाए रखता है, जिससे बड़े लोग भी सीख सकते हैं, लेकिन इसके लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ सकती है.
शिशुओं को कुछ याद नहीं रहता? एक बार फिर सोचिए
जैसे कि न्यूरो-लैंग्वेज कोच आना कुंट ने बताया कि चीजों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना जरूरी है, ताकि दिमाग उन्हें धीरे-धीरे अपनाए और डर महसूस न करे, बल्कि और सीखने के लिए तत्पर हो जाए. वे कहती हैं, "ऐसा हो सकता है कि अगर स्टूडेंट तैयार नहीं है और अचानक से उस पर जर्मन के ‘आकुजाटिव' की बड़ी सी टेबल खोल दी जाए तो उसका दिमाग तनाव में आ सकता है. इससे दिमाग में एक तरह का "केमिकल कॉकटेल” बनेगा और घर जाकर भी दिमाग में चलता है – 'यह तो बहुत मुश्किल है, मेरी समझ से तो बिल्कुल बाहर है'.” इसलिए उनका कहना है कि भाषा को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ना बहुत जरूरी है ताकि दिमाग तनाव में ना आए बल्कि सहजता से उसे सीखना चाहे.
दिमाग के लिए भी जरूरी है कसरत
जैसे शारीरिक स्वास्थ्य पर तो ध्यान देने वाले लोग जिम जाते हैं, पर्याप्त प्रोटीन लेते हैं ताकि उनकी मांसपेशियां मजबूत बनें. वैसे ही दिमाग में मसल्स बनाने के लिए दिमाग की कसरत भी जरूरी है. मानसिक गतिविधियां दिमाग में नए न्यूरॉन (तंत्रिका कोशिकाओं) के निर्माण को बढ़ावा देती हैं. मानसिक रूप से ज्यादा सक्रिय बुजुर्गों में कम सक्रिय लोगों की तुलना में याददाश्त और सोचने की क्षमता में गिरावट आमतौर पर धीमी होती है. दिमाग भी मसल्स की तरह ही होता है, जितना उसका इस्तेमाल किया जाता है, उतनी ही मजबूती आती है.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन के दिमाग का 'कॉर्पस कैलोसम' और ज्यादातर हिस्सा उनकी उम्र के आज के बुजुर्गों और युवा दोनों की तुलना में अधिक मोटा था.
आना कुंट भी इस बात से सहमति रखती हैं. उनका कहना है कि शिशुओं के पास संवाद का कोई और तरीका नहीं होता, जिसके कारण वह जल्दी- जल्दी भाषा सीखते हैं. लेकिन वयस्कों के पास पहले से एक भाषा होती है, इसलिए उनका मस्तिष्क जरूरत पड़ने पर उसी पर लौटने की कोशिश करता रहता है यानी दिमाग जाने पहचाने पैटर्न्स में घूमता रहता है.
जबकि दिमाग के विकास के लिए जरूरी है कि हम उन्हीं पैटर्न्स में ना घूमें बल्कि नए तरीके अपनाएं. आना कुंट के अनुसार भाषा को पूरी तरह डूबकर सीखने का सबसे असरदार होता है. यानी जब कोई वयस्क जानबूझकर अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल बंद कर दे और इस मामले में बिल्कुल शिशुओं की तरह हो जाए. न्यूरो-लैंग्वेज कोच बताती हैं कि अगर कोई चीजों की ओर इशारा करके और शब्दों की नकल करके सीखना शुरू करे, तो वह थोड़ा धीमा लेकिन नई भाषा सीखने का बेहद असरदार तरीका होता है.