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कानून और न्यायभारत

क्या किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं राज्यपाल

प्रभाकर मणि तिवारी
४ सितम्बर २०२५

क्या किसी राज्यपाल को विधानसभा में पारित किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोकने का अधिकार है? हाल के महीनों में इस मुद्दे पर उपजे टकराव को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय संविधान पीठ में सुनवाई चल रही है.

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कोलकाता में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में शिक्षकों को संबोधित करते हुए
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कई बार विधेयकों को मंजूरी देने में अनावश्यक देरी पर असंतोष जताती रही हैंतस्वीर: Satyajit Shaw/DW

पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि किसी विधेयक को मंजूरी देने का मुद्दा पूरी तरह राज्यपाल के विवेक पर छोड़ने का मतलब आम लोगों की इच्छा को नकारना है. राज्यपाल को विधानसभा में पारित किसी विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है. कोई व्यक्ति अदालत में किसी कानून को भले चुनौती दे सकता है. लेकिन राज्यपाल इसे रोक नहीं सकते.

दरअसल, पश्चिम बंगाल के अलावा केरल, हिमाचल, कर्नाटक और तमिलनाडु में हाल के महीनों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब राज्यपाल ने कई विधेयकों को रोक कर रखा हो और बार-बार सरकार से सफाई मांग रहे हों. इस मुद्दे पर टकराव और बयानबाजी का दौर भी तेज रहा है.

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पश्चिम बंगाल के मामले को ही लें तो बीते साल कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के साथ रेप और उसकी हत्या की घटना के बाद राज्य सरकार ने सदन में अपराजिता विधेयक पारित किया था. इसके तहत 12 साल तक की उम्र की लड़कियों के साथ रेप के दोषियों को अनिवार्य रूप से मौत की सजा देने का प्रावधान था. इसके अलावा ऐसे मामलों के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट बना कर 21 दिनों में सुनवाई पूरी करने जैसे कई कड़े प्रावधान रखे गए थे. सरकार ने इसे मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजा था. लेकिन महीनों लटकाने और कई बार विभिन्न बिंदुओं पर सफाई मांगने के बाद उन्होंने इसे राष्ट्रपति के पास बेज दिया. वहां से यह विधेयक फिर राजभवन होते हुए सरकार को पास लौट आया है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कई बार विधेयकों को मंजूरी देने में अनावश्यक देरी पर असंतोष जताती रही हैं. ममता आरोप लगा चुकी हैं कि  विधेयकों को रोक कर राज्यपाल आनंद बोस राज्य प्रशासन को पंगु बनाने का प्रयास कर रहे हैं.

संविधान पीठ कर रही है सुनवाई

इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस विवाद की लगातार सुनवाई कर रही है. संविधान पीठ सामने यह सवाल भी है कि क्या अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के विचार करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित कर सकती है.

बुधवार को इस मामले की सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से पेश एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि स्वाधीनता के बाद ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जिसमें राष्ट्रपति ने जनता की इच्छा का हवाला देते हुए संसद में पारित किसी विधेयक को मंजूरी नहीं दी हो. उनकी दलील थी कि किसी विधेयक की विधायी क्षमता का जांच अदालतों में होनी चाहिए. किसी राज्यपाल को इसे मंजूरी देने से इंकार करने का अधिकार नहीं है.

राष्ट्रपति के सवाल

इस विवाद में अदालत के हस्तक्षेप के बाद बीती मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत मिली शक्तियों के तहत सुप्रीम कोर्ट से सवाल किया था कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं में पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति की ओर से विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकते हैं? उन्होंने शीर्ष अदालत से कुल 14 सवाल पूछे थे. उसके बाद संविधान पीठ ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की हद तक पहुंचते इस मुद्दे पर सुनवाई शुरू की थी.

दरअसल, इससे पहले इस साल आठ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे.बी.पादरीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला नहीं ले पाने की स्थिति में राष्ट्रपति को इसकी उचित वजह बतानी होगी. अदालत ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत उसे राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा का अधिकार है.

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उसके बाद ही राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से उस फैसले पर स्पष्टीकरण मांगा था. इसमें पूछा गया था कि जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक आता है तो उनके सामने कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं?  क्या राज्यपाल फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?  क्या राज्यपाल के फैसले को अदालत  में चुनौती दी जा सकती है? उनका सवाल था कि अगर संविधान में राज्यपाल के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है तो क्या कोर्ट कोई समय सीमा तय कर सकता है? क्या राष्ट्रपति के निर्णय को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है? और  क्या राष्ट्रपति के फैसलों पर भी कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?

राष्ट्रपति के इस प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में ऐसे ही 14 सवाल थे.

राज्यपाल के असीमित अधिकार का विरोध

पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों की सरकार राज्यपाल के असीमित विवेकाधीन अधिकारों का विरोध कर रही हैं. दूसरी ओर बीते 26 अगस्त की सुनवाई के दौरान बीजेपी-शासित कई राज्य सरकारों ने विधायिका की ओर से पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वायत्तता का बचाव करते हुए दलील दी थी कि अदालत किसी कानून को मंजूरी नहीं दे सकती. उनका कहना था कि न्यायपालिका हर मर्ज का इलाज नहीं हो सकती.

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लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों पर हैरानी जताते हुए सवाल उठाया था कि अगर राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए मंजूरी देने में देरी करते हैं तो क्या अदालत को चुप्पी साध कर देखते रहना चाहिए?

बुधवार की सुनवाई के दौरान हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक सरकार के वकीलों ने भी सिब्बल की दलीलों से सहमति जताते हुए कहा कि राज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि होते हैं. लेकिन अगर उनके पास विधायिका की ओर से पारित विधेयकों को रोकने का बेलगाम अधिकार हो तो तो संघीय शासन में गंभीर असंतुलन पैदा हो जाएगा.

कर्नाटक सरकार के सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि डॉ. बी.आर. अंबेडकर के मुताबिक राज्यों और केंद्र को अपने निर्धारित विधायी क्षेत्रों में समान रूप से काम करना चाहिए.

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकारों और राज्यपाल के बीच यह विवाद बहुत पुराना है. हाल के वर्षो में ऐसे विवाद और टकराव बढ़े हैं. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले से शायद इसका हमेशा के लिए समाधान हो सकेगा.

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कलकत्ता हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील शिल्पी मजूमदार डीडब्ल्यू से कहती हैं, "यह विवाद जितनी जल्दी खत्म हो, उतना ही अच्छा है. कई विधेयक राजभवन की फाइलों में दब कर दम तोड़ते रहे हैं. इससे उनको पारित करने का तात्कालिक मकसद ही खत्म हो जाता है. इस मामले में अपराजिता विधेयक को मिसाल दी जा सकती है." वो कहती हैं कि अगर बीते साल ही उस कानून को मंजूरी मिल गई होती तो बीती जून में कोलकाता के लॉ कॉलेज में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होती.

कोलकाता के एक लॉ कालेज की छात्रा सुमति गोस्वामी भी इससे सहमत हैं. वो डीडब्ल्यू से कहती हैं, "अपराजिता समेत तमाम विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय सीमा तय की जानी चाहिए. बेमतलब की दलीलें देकर किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक अधर में रखना राजभवन को तो कटघरे में खड़ा करता ही है, लोकतंत्र के संघीय ढांचे के लिए भी यह अच्छा संकेत नहीं है."

अब इस विवाद के निपटारे के लिए तमाम निगाहें सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ पर लगी हैं. वो नौ सितंबर को इस मामले की अगली सुनवाई करेगी.