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जर्मनी के चुनाव में पर्यावरण पर भारी है प्रवासियों का मुद्दा

७ फ़रवरी २०२५

जर्मनी के लिए कभी नंबर एक प्राथमिकता रहा पर्यावरण मौजूदा चुनावी अभियान में पिछड़ गया है. आप्रवासी, आर्थिक स्थिरता और सुरक्षा का मामला इस समय राजनेता और जनता दोनों के लिए ज्यादा अहम हो गया है.

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एएफडी के खिलाफ संसद के सामने प्रदर्शन करते जर्मनी के लोग
जर्मनी के चुनाव प्रचार में आप्रवासियों का मुद्दा सिर चढ़ कर बोल रहा हैतस्वीर: Christian Mang/Reuters

23 फरवरी के आम चुनाव के लिए कमर कस चुके जर्मनी में एक बड़ा बदलाव दिखने लगा है. महज तीन साल पहले तक चुनाव का सबसे अहम मुद्दा बन कर उभरी जलवायु बचाने की मुहिम इस चुनाव की परिचर्चा से गायब हो रही है. सर्वेक्षणों से साफ पता चल रहा है कि कि जर्मन मतदाता जलवायु नीति के मामले में बंटे हुए हैं. क्लाइमेट अलायंस जर्मनी के ताजा सर्वे ने दिखाया कि 53 फीसदी मतदाता चाहते हैं कि अगली सरकार पर्यावरण की रक्षा के लिए और ज्यादा उपायों पर अमल करे. क्लाइमेट अलायंस जर्मनी पर्यावरण के लिए काम करने वाला एक संगठन है.

हालांकि दूसरे सर्वेक्षणों से पता चला है कि मतदाताओं की प्राथमिकता में जलवायु का मुद्दा चौथे नंबर पर चला गया है. उससे पहले लोग आप्रवासन, आर्थिक स्थिरता और सुरक्षा चिंताओं को महत्व दे रहे हैं.

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आप्रवासन का मुद्दा सबसे ऊपर

आप्रवासियों का मुद्दा इस चुनाव में सबसे ऊपर है. कुछ इलाके उसका दबाव झेलते हैं क्योंकि अनियमित आप्रवासन में आने वाले प्रवासी इन्हीं इलाकों में सबसे पहले पहुंचते हैं. इसे लेकर वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर तीखी बहस चल रही है. इसके साथ ही लोगों की आर्थिक चिंताएं भी इस समय उन्हें ज्यादा परेशान कर रही हैं. इसमें महंगाई और ईंधन की बढ़ती कीमतों से सबसे ज्यादा लोग परेशान हैं. इसके अलावों लोगों की मुश्किलें रोजमर्रा के खर्चे और रोजगार की सुरक्षा को लेकर भी है.

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बीते सप्ताह जर्मनी की राजनीति आप्रवासियों के नाम पर उबलती रहीतस्वीर: Annegret Hilse/Reuters

इन सब चीजों के बाद यूक्रेन युद्ध से उपजी सुरक्षा चिंताएं और रक्षा क्षेत्र पर हो रहे खर्च को लेकर जारी बहस भी लोगों की नींद उड़ा रही हैं. आमलोगों के राजनीतिक एजेंडे में फिलहाल इन्हीं मुद्दों का बोलबाला है. आलोचकों का कहना है कि जलवायु के मुद्दों पर जिस तरह की खामोशी चुनाव प्रचार में दिख रही है वह सन्न कर देने वाली है.

क्लाइमेट अलायंस की जलवायु नीति निदेशक स्टेफानी लांगकांप का कहना है, "जलवायु संरक्षण की चुनौतियां अब भी बहुत ज्यादा हैं, लेकिन पार्टियां इस मुद्दे पर खामोश हैं, या फिर पीछे लौटने की वकालत कर रही हैं."

जर्मनी के हरित बदलाव पर जोखिम

जर्मनी का हरित बदलाव या फिर एनर्गीवेंडे दुनिया के सबसे महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय बदलावों में शामिल है जहां जीवाश्म ईंधन और परमाणु शक्ति को अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बदला जा रहा है.

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2024 में मोटे तौर पर देश की 58 फीसदी बिजली अक्षय स्रोतों से पैदा की गई. इसमें पवन, सौर, जैविक ऊर्जा और पनबिजली शामिल हैं. 2021 में यह आंकड़ा 40 फीसदी और 2000 में केवल छह फीसदी था.

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अंतरसरकारी अंतरराष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी (आईआरईएनए) के आंकड़े दिखाते हैं कि जर्मनी सौर ऊर्जा क्षमता में पांचवें और पवन ऊर्जा के मामले में फिलहाल तीसरे नंबर पर है. हालांकि जर्मनी की बदलाव की कोशिशों को कुछ जगहों पर सावधानी के किस्सों की तरह भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

एएफडी की नेता और चांसलर पद की उम्मीदवार एलिस वाइडेल
धुर दक्षिणिपंथी एएफडी चुनावी दौड़ में दूसरे नंबर पर चल रही है तस्वीर: Alex Gottschalk/DeFodi Images/picture alliance

हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक बेकर इंस्टिट्यूट की एक रिसर्च रिपोर्ट में जर्मनी के "एनर्गीवेंडे" की तरफ इशारा करते हुए चेतावनी दी गई थी, "पथभ्रष्ट ऊर्जा नीतियों के दूर तक जाने वाले नतीजे हो सकते हैं." इसमें कहा गया है, "जर्मनी की बुलंद अक्षय ऊर्जा नीतियों को लागू करने की हालिया कोशिशों ने उसकी यूरोपीय आर्थिक महाशक्ति और उत्पादन के क्षेत्र में वैश्विक नेता की स्थिति को जोखिम में डाल दिया."

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जर्मनी की नई ऊर्जा नीति में कई "गलत कदम" उठाए गए जिनमें रूसी गैस पर अत्यधिक निर्भरता और परमाणु ऊर्जा केंद्रों को बंद करना भी शामिल है.

रूढ़िवादी विपक्षी नेता फ्रीडरिष मैर्त्स अगले चांसलर बनने की दौड़ में सबसे आगे हैं. उन्होंने चुनावों को "नाकाम हरित आर्थिक योजनाओं पर जनमत संग्रह" में बदल दिया है. वह आर्थिक मामलों के मंत्री और ग्रीन पार्टी के नेता रॉबर्ट हाबेक की "विनाशकारी आर्थिक और ऊर्जा नीतियों" के लिए उनकी जम कर आलोचना कर रहे हैं.

शॉल्त्स की जलवायु विरासत 

हालिया सर्वेक्षणों से पता चल रहा है कि ग्रीन पार्टी सरकार से बाहर होने वाली है. ऐसे में पर्यावरण के लिए काम करने वालों को चिंता है कि मौजूदा गठबंधन सरकार में चल रहीं महत्वाकांक्षी जलवायु नीतियां जोखिम में पड़ सकती हैं. चांसलर ओलाफ शॉल्त्स के नेतृत्व वाली सरकार को अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने और परमाणु ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से 2023 के आखिर तक बंद करने का श्रेय दिया जाता है. इस दौरान आर्थिक और सुरक्षा संकटों के बीच भी ऊर्जा की स्थिरता बनी रही.

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यूक्रेन पर रूस के हमले ने जर्मनी को और तेजी से रूसी गैस पर निर्भरता खत्म करने के लिए दबाव बनाया. इसके बाद ऊर्जा की आपूर्ति को दूसरे विकल्पों की ओर मोड़ा गया. 2023 में सरकार ने क्लाइमेट एक्शन एक्ट में सुधार किया. इसके जरिए 2045 तक कार्बन न्यूट्रलिटी का लक्ष्य हासिल करने में तेजी लाई गई और 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य बढ़ा कर 65 फीसदी तक किया गया. इसके साथ ही 2038 तक कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की भी योजना बनी है.

जर्मन चांसलर और एसपीडी नेता ओलाफ शॉल्त्स
शॉल्त्स के दौर में जर्मनी के परमाणु ऊर्जा घर पूरी तरह बंद हो गएतस्वीर: Soeren Stache/dpa/picture alliance

हालांकि हीटिंग से जुड़े विवादित कानून ने लोगों को काफी नाराज किया है. इसके तहत कुछ इमारतों में जीवाश्म ईंधन से चलने वाले हीटिंग सिस्टम को बदला जाना है. मौजूदा गठबंधन सरकार के पतन में कुछ हद तक इस फैसले ने भी भूमिका निभाई है.

चुनावी शोर में भी जलवायु परिवर्तन

जलवायु नीतियां पूरी तरह से मौजूदा चुनावी अभियान में किनारे नहीं हुई हैं. हालांकि पर्यवेक्षकों का मानना है कि उत्पादक होने की बजाय यह मुद्दा ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है.  

अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) की पार्टी कांफ्रेंस में धुर दक्षिणपंथी पार्टी की नेता एलिस वाइडेल की इस बात पर खूब तालियां बजीं, "जब हम निर्णय लेंगे तो सारी पवनचक्कियों को तोड़ देंगे. शर्मिंदा करने वाली पवन चक्कियां मुर्दाबाद." उन्होंने परमाणु ऊर्जा वापस लाने की भी बात कही है.

बर्लिन में रहने वालीं ऊर्जा अर्थशास्त्री क्लाउडिया केम्फर्ट का कहना है, "परमाणु ऊर्जा अत्यधिक महंगी होने के कारण उसकी वापसी के बहुत कम आसार हैं."

केम्फर्ट ने समाचार एजेंसी डीपीए से कहा कि परमाणु ऊर्जा को दोबारा लाने के लिए भारी सब्सिडी की जरूरत होगी, इसके साथ ही परमाणु ऊर्जा एक्ट में कानूनी संशोधन करने होंगे और साथ ही परमाणु कचरे के भंडारण के लिए समाधान ढूंढना होगा.

सीडीयू नेता फ्रीडरिष मैर्त्स चांसलर पद की दौड़ में सबसे आगे हैं
सीडीयू ने आप्रवासियों के खिलाफ एएफडी की मदद से संसद में प्रस्ताव पारित करायातस्वीर: dts Nachrichtenagentur/IMAGO

केम्फर्ट का कहना है, "पवन चक्कियों को तोड़ने का मतलब होगा ऊर्जा सप्लाई की सुरक्षा को खतरे में डालना क्योंकि पवन ऊर्जा अब जर्मनी में 20 फीसदी से ज्यादा बिजली पैदा करती है." 

23 फरवरी के चुनाव के बाद देश में रूढ़िवादियों के नेतृत्व वाली सरकार बनने के आसार हैं. इस सरकार में शॉल्त्स की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के जूनियर पार्टनर के रूप में शामिल होने की सबसे ज्यादा संभावना है. रूढ़िवादी सीडीयू/सीएसयू ने यूरोपीय संघ के नए दहन इंजनों वाली गाड़ियों पर 2035 में रोक लगाने की संभावित योजना को पलटने की वादा किया है. इस नियम का मकसद परिवहन क्षेत्र को 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनाना है.

हालांकि विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस तरह की जलवायु नीतियों को वापस लेने से उद्योग अस्थिर होंगे, ऊर्जा का बदलाव धीमा पड़ेगा और जर्मनी पर यूरोपीय संघ के उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल नहीं करने के लिए जुर्माना लगाया जा सकता है. केम्फर्ट का कहना है कि ऑटोमोटिव उद्योग को नीतियों में स्थिरता की जरूरत है क्योंकि बाजार पहले ही इलेक्ट्रिक गाड़ियों की ओर जा रहा है. उद्योगों की चिंता के अलावा अगली सरकार के सामने एक बड़ा मुद्दा सामाजिक न्याय का भी होगा.

सार्वजनिक परिवहन को मजबूत और किफायती किया जाना चाहिए साथ ही जलवायु नीतियों का बोझ कम आय वाले वर्गों पर नहीं पड़ना चाहिए. इस बीच डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के जलवायु विशेषज्ञ विवियाने राडात्ज ने चेतावनी दी है, "जलवायु से जुड़ी जिस किसी चीज में आज हम निवेश नहीं करेंगे, उस पर कल हमें तीनगुना खर्च करना होगा."

एनआर/वीके (डीपीए)