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समाजजर्मनी

रॉस्टॉक में विदेशी-विरोधी दंगों के सबक याद करता जर्मनी

बेन नाइट
२३ अगस्त २०२२

1992 की एक घटना ने जर्मन शहर रॉस्टॉक के लिष्टेनहागेन का नाम खराब कर दिया. वियतनामी और रोमा समुदाय के लोगों के खिलाफ यहां दंगे भड़काने के दोषियों के हल्के में छूट जाने को लेकर पीड़ितों के मन में आज भी है कड़वाहट.

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जर्मन शहर रॉस्टॉक में विदेशी विरोध अपने सबसे खतरनाक स्वरूप में दिखा
जर्मन शहर रॉस्टॉक में विदेशी विरोध अपने सबसे खतरनाक स्वरूप में दिखातस्वीर: NDR

दंगों के पीड़ित डैन थाई नागुयेन बताते हैं कि अगर आज वह 1992 के लिष्टेनहागेन पोग्रॉम को लेकर कुछ महसूस करते हैं तो सिर्फ कड़वाहट.

हर साल 22 से 26 अगस्त के बीच उस घटना की याद की जाती है जब 1992 में कई सौ नवनाजियों ने एक इमारत को घेर लिया था जिसमें विदेशी रहते थे. जर्मन सरकार ने वहां जर्मनी में शरण मिलने का इंतजार करने वाले लोगों को रखा था. उसमें रहने वाले ज्यादातर वियतनामी लोग थे जो एकीकरण के पहले पूर्वी जर्मनी में विदेशी गेस्ट वर्करों के तौर पर काम करते थे.

नस्लभेदी नफरत से पैदा हुआ गुस्सा उन सैकड़ों रोमा लोगों पर टूटा जो बाहर तंबू डाल कर पड़े थे और शरण मिलने का इंतजार कर रहे थे. दंगाइयों ने उन पर पत्थर और बोतलें फेंकी. सूर्यमुखी के म्यूरल वाली जिस इमारत में विदेशी लोग रहते थे, दंगाई उसमें जा घुसे.

सूर्यमुखी के म्यूरल वाली इसी इमारत में रखे गए थे विदेशी लोग
सूर्यमुखी के म्यूरल वाली इसी इमारत में रखे गए थे विदेशी लोगतस्वीर: picture-alliance/dpa

एक समय पर तो घटनास्थल पर करीब 3,000 लोग जमा हो गये थे. वे कभी तालियां बजाते तो कभी पुलिस और बचाव कर्मियों को बीच बचाव करने से रोकते. 24 अगस्त को तो उन्होंने पूरी इमारत को ही आग लगा दी. हालांकि तब तक इमारत से ज्यादातर लोग बाहर निकाले जा चुके थे, फिर भी 100 के करीब वियतनामी लोग और एक जर्मन टीवी चैनल का क्रू उस वक्त अंदर ही था. किसी तरह दरवाजे तोड़ते हुए जब ये लोग इमारत की छत पर पहुंचे तब भी नीचे जमा लोगों ने उनसे चिल्ला कर कहा, "तुम सबको देख लेंगे!"

थिएटर डायरेक्टर नागुयेन उस शर्मनाक घटना के कुछ पीड़ितों के साथ मिलकर स्टेज के लिए एक नाटक भी बना चुके हैं. इस आगजनी में भी सबके जिंदा बच जाने पर वे कहते हैं कि उनमें से ज्यादातर वियतनाम युद्ध के दौरान बड़े हुए थे और इसीलिए "कैसे बच कर निकलना है ये उन्होंने बहुत कम उम्र में ही सीख लिया था."

नस्लवाद और उसके नतीजे

कई दूसरे वियतनामी जर्मनों की ही तरह नागुयेन पर भी उस घटना का गहरा असर पड़ा. उस वक्त उनकी उम्र केवल सात साल थी और वह उस समय के पश्चिमी जर्मनी में रह रहे थे. सन 2017 में जर्मन पत्रिका 'डी साइट' ने उनका एक दमदार लेख छापा जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया था कि पोग्रॉम के बाद ही उनके पिता ने सब बच्चों को तार जैसी आम चीजों के इस्तेमाल से आत्मरक्षा करना सिखाया.

लेकिन तीन दशक बाद नागुयेन और लिष्टेनहागेन का संबंध और राजनीतिक रूप ले चुका है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उनकी कड़वाहट इस रूप में सामने आती है कि "30 साल बाद भी कोई राजनीतिक नतीजे नहीं, कोई असली न्याय नहीं मिला." वह कहते हैं, "हमें अब भी समझ नहीं आता कि पुलिस ने ठीक से दखल क्यों नहीं दिया."

सूर्यमुखी के म्यूरल वाली इसी इमारत में रखे गए थे विदेशी लोग
सूर्यमुखी के म्यूरल वाली इसी इमारत में रखे गए थे विदेशी लोगतस्वीर: picture-alliance/dpa

कई इतिहासकार और राजनीतिज्ञ भी मानते हैं कि लिष्टेनहागेन के दंगों की आपराधिक जांच बहुत धीमी चली, उसमें भी कुछ दर्जन लोगों के खिलाफ ही आरोप तय हुए, जिन्हें तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई वह भी आगे चल कर स्थगित हो गई, जबकि उन पर हत्या की कोशिश के आरोप लगे थे.

पुलिस की ढीली कार्रवाई को लेकर चली दो अलग जांच कमेटियों ने कई साल लगाए और अंतत: उन्होंने कहा कि पुलिस के खिलाफ मामला ही नहीं बनता. दर्जनों पुलिसकर्मी मुठभेड़ में घायल हुए थे. हजारों दंगाइयों से निपटने के लिए इतने कम पुलिसकर्मी क्यों भेजे गए थे इस पर भी विवाद रहा.

वर्षगांठ मनाने से क्या होगा

इस घटना की तीसवीं वर्षगांठ पर जर्मनी एक पल ठहर कर उसके सबक याद करता है. केवल रॉस्टॉक के भीतर भी लोगों के बीच संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिशें चल रही हैं. दंगों के कुछ ही हफ्ते बाद से डीन हॉन्ग नाम की एक संस्था सक्रिय है जिसे 62 पूर्व वियतनामी मजदूरों ने मिलकर स्थापित किया था. आज वही संस्था आप्रवासियों और शरण के इच्छुक लोगों की मदद करती है, जैसे हाल ही में यूक्रेन से भाग कर पहुंचे लोगों की.

वर्षगांठ के कुछ महीने पहले से डीन हॉन्ग के साथ काम करने वाली वू थान वान लिष्टेनहागेन के भीतर वियतनामी और गैर वियतनामी लोगों के बीच "वार्ता चक्र" का आयोजन करवा रहे हैं, ताकि वे आपस में बातचीत कर 1992 की घटना को याद करें. वान बताती हैं कि "इससे दोनों पक्ष एक दूसरे की भावनाओं और सोच को और बेहतर तरीके से समझ पाए."

संस्था के बोर्ड में शामिल सुजाने डूस्काऊ कहती हैं कि लिष्टेनहागेन जर्मनी में "अनवरत नस्लवाद" का एक रिमाइंडर है. वह कहती हैं कि "हालांकि लोग सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन यह मुद्दा आज भी बना हुआ है." इतने सालों में आए बदलाव पर वे कहती हैं कि "इस पर चर्चा और एक्सचेंज की संभावना अब जरूर बढ़ गई है."

नागुयेन बताते हैं कि "अब हम नस्लवाद पर बात कर सकते हैं. दस साल पहले कहता, तो लोग टोकते कि जर्मनी में रेसिज्म नहीं होता." अब एक बार फिर अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) के उभार के साथ ही जर्मनी में रेसिज्म को नकारना असंभव हो चुका है. नस्लवाद पर भले ही अब खुल कर बात हो पा रही है लेकिन इसे एक तरह की राजनैतिक वैधता भी मिल गई लगती है.