जर्मनी: किराये के घरों की किल्लत नहीं बन पाया चुनावी मुद्दा
२१ फ़रवरी २०२५जर्मनी के बड़े शहरों में किराये के घरों की भारी किल्लत देखी जा रही है. जब कोई घर किराये के लिए खाली होता है, तो हजारों संभावित किरायेदार उसके लिए कतार में खड़े हो जाते हैं. हालांकि, यह गंभीर समस्या आने वाले चुनाव में चर्चा का विषय नहीं बन सका.बिल्ड यूरोप के अध्यक्ष एंड्रियास के मुताबिक "आवास लोगों के लिए सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता, इसे कोई गंभीरता से नहीं लेता."
इन चुनावों में वोटरों के लिए प्रवास और कमजोर अर्थव्यवस्था सबसे जरूरी मुद्दों में से एक हैं. विश्लेषकों का कहना है कि आवास नीति चुनावी बहस में प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाती क्योंकि इसके प्रभाव तुरंत दिखाई नहीं देते. आवासीय परियोजनाओं में निवेश करने के बाद भी इसका फल मिलने में लंबा समय लग सकता है. जिससे इसे चुनावी अभियान में बतौर मुद्दे पर शामिल किया जाना मुश्किल हो जाता है.
जर्मन अर्थव्यवस्था की मुश्किलें भी तय करेंगी चुनाव का रुख
महंगा होता किराया और धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों का उभार
बढ़ते किराये के कारण एएफडी जैसी दक्षिणपंथी पार्टियों को कम आय वाले किरायेदारों का समर्थन मिलने की संभावना है. ऑक्सफर्ड, मैनहेम और ज्यूरिख विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं के अनुसार, किरायेदारों की आर्थिक तंगी इस बदलाव को बढ़ावा दे सकती है.
ओईसीडी के अनुसार, अपनी आय का 40 फीसदी से अधिक किराए पर खर्च करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. महंगा किराया और किफायती घरों की कमी ने जर्मनी के आवास संकट को और गंभीर बनाया है. इसके अलावा, कुछ दूसरे कारण भी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं, जैसे कि छुट्टियों में किराये पर दिए जाने वाले घरों की संख्या में वृद्धि जैसे कि एयरबीएनबी. इसके साथ ही शरणार्थियों और आप्रवासियों की बढ़ती तादाद भी इसकी एक वजह है.
बर्लिन स्थित जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के अर्थशास्त्री क्रिश्चियन डैने का मानना है कि एयरबीएनबी जैसी सेवाएं और हाल के वर्षों में शरणार्थियों और प्रवासियों की बढ़ती संख्या के कारण हालात और खराब हुए हैं, लेकिन ये इस समस्या का मुख्य कारण नहीं है.
किरायेदारों का देश और आवास संकट
जर्मनी में आज भी 50 फीसदी से अधिक लोग किराये पर रहते हैं, जबकि 2023 में यूरोपीय संघ में औसतन 30 फीसदी लोग किराये पर रह रहे थे. बढ़ते किराये पर नियंत्रण लगाने से कुछ किरायेदारों को फायदा होता है, लेकिन इससे आवास की कमी और बढ़ जाती है. जब किराया स्थिर रहता है तो लोग अपने मौजूदा मकानों को छोड़कर नए घरों में जाने से बचते हैं, जिससे उपलब्ध घरों की संख्या कम हो जाती है.
इसके अलावा फर्निश्ड अपार्टमेंट पर यह कानून लागू नहीं है जिसका मकान मालिकफायदा उठा कर ज्यादा किराया वसूलते हैं. मध्यम और निम्न आय वाले लोग महंगे किराये के कारण शहरों में रहने में असमर्थ हो जाते हैं.
2010 से 2022 तक जर्मनी में किराये में राष्ट्रीय स्तर पर 50 फीसदी और बड़े शहरों में 70 फीसदी तक वृद्धि हुई है. मौजूदा किराया 20 फीसदी तक बढ़ चुका है. डीआईडब्लू की 2024 के रिपोर्ट के अनुसार, इससे सबसे अधिक गरीब परिवार और सिंगल पेरेंट प्रभावित हुए हैं. डैने बताते हैं, "यह सिर्फ कम आय वाले परिवारों की समस्या नहीं है. मध्यम आय वाले परिवार भी इतनी परेशानी में हैं कि जैसे ही कोई घर किराये के लिए उपलब्ध होता है, वे उसे बिना देखे ही किराये पर ले लेते हैं."
बर्लिन में गहराता आवासीय संकट
बर्लिन में 2004 में बजट घाटा पूरा करने के लिए सामाजिक आवासों को निजी निवेशकों को बेच दिया गया था. उन्होंने लग्जरी अपार्टमेंट्स बनाए, लेकिन कम आय वाले लोगों के लिए घरों की उपलब्धता घट गई. जर्मनी में पिछले 10 साल से लागू किराया नियंत्रण कानून की अवधि 2025 के अंत में खत्म होने वाली थी, लेकिन अचानक हुए चुनावों के कारण इस योजना पर तलवार लटक गई है.
सत्ताधारी गठबंधन दल सोशल डेमोक्रेट्स और ग्रीन्स ने इसे जारी रखने का वादा किया है, जबकि विपक्षी कंजरवेटिव पार्ट, जिसके आगामी चुनाव में जीतने की उम्मीद है, इसे खत्म करना चाहती है.
हालांकि, विशेषज्ञों और रियल एस्टेट डेवलपर्स का मानना है कि किराया नियंत्रण को बढ़ाने से आवास का संकट हल नहीं होगा. इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि जर्मनी को अपने पड़ोसी देश ऑस्ट्रिया से सीख लेनी चाहिए, जहां सामाजिक आवास को बुनियादी अधिकार माना जाता है. उदाहरण के तौर पर, वियना में आधे से ज्यादा लोग सरकारी सहायता प्राप्त घरों में रहते हैं, जिससे वहां आवास की समस्या इतनी गंभीर नहीं है.
निर्माण कार्य में मंदी और सरकारी नीतियां
जर्मनी में घरों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए छह लाख से आठ लाख नए घरों की जरूरत है. लेकिन निर्माण कार्य की गति धीमी पड़ रही है, जिससे यह संख्या और बढ़ सकती है. सरकार ने हर साल सैकड़ों हजारों नए घर बनाने का वादा किया था, लेकिन अब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है.
2021 में सत्ता में आने के बाद जर्मनी की गठबंधन सरकार ने सालाना चार लाख नए घर बनाने का वादा किया था, जिसमें 25% सामाजिक आवास होने थे. हालांकि, पिछले साल केवल दो लाख घर ही बनाए गए, जबकि 2021 में यह संख्या लगभग तीन लाख थी.
एएफडी का उभारः सबके बराबर पहुंच गए हैं "मैर्केल के बच्चे"
निर्माण कंपनियों का कहना है कि निर्माण क्षेत्र में सुस्ती का कारण कच्चे माल की बढ़ती लागत, भूमि की कमी, सरकारी सहायताओं की कमी और कठोर नियम हैं. एंड्रियास इबेल ने बताया, "हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम एक उच्च मानक वाला घर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे कोई खरीद नहीं सकता." उन्होंने समझाया कि इस मॉडल में ऊर्जा दक्षता से जुड़े कड़े नियम शामिल हैं, जिससे घरों की लागत और बढ़ जाती है.
डेवेलपर्स का कहना है कि नीति निर्माताओं को अनावश्यक नियमों में कटौती करने और सस्ती आवास परियोजनाएं बनाने वाली कंपनियों को टैक्स में छूट जैसे कदम उठाने पर विचार करना चाहिए. विशेषज्ञों का मानना है कि यदि आवास निर्माण को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो यह संकट और गंभीर हो जाएगा. और इससे गरीब परिवारों और शरणार्थियों के बीच तनाव बढ़ सकता है.
यूरोपियन सोशल हाउसिंग नेटवर्क की महासचिव सॉर्चा एडवर्ड्स ने चेतावनी दी, "अगर घर नहीं बनाए गए, तो दीवारें बन जाएंगी, जिससे सामाजिक विभाजन और बढ़ेगा."
एसएम/आरआर (रॉयटर्स)