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समाजजर्मनी

जर्मनी के चर्चों को कब तक पैसा देती रहेगी सरकार

१७ जून २०२३

जर्मन सरकार हर साल करोड़ों यूरो ईसाई चर्चों को क्यों देती है? अगर वित्तीय बोझ कम करने के लिए इसे रोक दिया जाए तो यह कैसे उस पर भारी पड़ सकता है?

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कोलोन शहर का विख्यात चर्च डोम
जर्मनी की चर्चों के पास अब भी काफी बड़ी और महंगी संपत्तियां हैंतस्वीर: Marc Rasmus/imageBROKER/picture alliance

जर्मनी के दो प्रमुख चर्चों में सरकारी कोष से हर साल बड़ी मात्रा में पैसा जाता है. पिछले साल, इन चर्चों को छह अरब यूरो से ज्यादा सरकारी धन मिला. यह धनराशि इन्हें मिलने वाले चर्च टैक्स से भी ज्यादा थी.

कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्चों को इतनी बड़ी मात्रा में सरकारी पैसा क्यों दिया जाता है, यह जानने के लिए हमें दो शताब्दी पहले जाना पड़ेगा. 19वीं सदी की शुरुआत में जर्मनी पर नेपोलियन ने कब्जा कर लिया था और बीस साल तक उसने शासन किया. जर्मन राइष को पराजित करने के बाद, फ्रेंच शासक नेपोलियन ने सबसे पहले चर्च और सरकार को अलग करने का आदेश जारी किया. इस आदेश में मोनेस्ट्रीज और चर्च से जुड़े दूसरे संस्थानों को बंद करना और उन्हें जब्त करना भी शामिल था.

यहां साल 1803 के राइषडेपुटेशनहॉप्टश्लुष नाम के एक कानून की चर्चा करना जरूरी है जिसे अंग्रेजी में इंपीरियल रिसेस ऑफ 1803 कहा जाता है. इस कानून ने चर्चों को अपनी संपत्ति और जमीन पड़ोसी रियासतों को सौंपने पर मजबूर किया. बदले में, मुआवजे के तौर पर, चर्चों के वरिष्ठ पादरियों को तनख्वाह और चर्चों के रखरखाव का खर्च रियासतों को वहन करना था.

तब से लेकर आज तक, 16 जर्मन राज्य, अपने राजाओं के कानूनी उत्तराधिकारी के तौर पर इस मुआवजे का भुगतान करते हैं.

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हालांकि, 1919 में ही यह तय हुआ कि एक बार में ही एकमुश्त राशि देकर इस नियमित भुगतान से छुटकारा पा लिया जाए और इस व्यवस्था को खत्म कर दिया जाए. इसे सबसे पहले वाइमर रिपब्लिक के संविधान में शामिल किया गया था. विश्व युद्ध के बाद के जर्मनी में भी कहा गया कि नियमों का पालन किया जाएगा और इसे देश के नए संविधान के मूल कानून में शामिल किया जाएगा. इस नए संविधान को जर्मनी ने 1949 में अपनाया था.

फिर भी, सरकारी खजाने से चर्चों को नियमित रूप से जाने वाली इस धनराशि का जाना अब भी जारी है और समय के साथ इसमें  बढ़ोत्तरी हो रही है. 1949 में जहां यह राशि 2.3 करोड़ यूरो थी वहीं 2023 में यह बढ़कर 60.2 करोड़ यूरो हो गई.

बर्लिन में नेपोलियन बोनापार्ट
जब नेपोलियन ने जर्मनी पर कब्जा किया तो चार वर्षों का उसका शासन जर्मनी की चर्चों के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हुआतस्वीर: Gemeinfrei

चर्च संबंधी कानूनों के जानकार हांस मिषाएल हाइनिष कहते हैं कि जर्मनी के इन 16 राज्यों की यथास्थिति से संतुष्टि हैरान करने वाली है दूसरी तरफ चर्चों को भी एकमुश्त मुआवजा लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

हाइनिष कहते हैं, "चर्च भी संतुष्ट हैं क्योंकि उनके पास संपन्न देनदार हैं और सरकार की ओर से यह धनराशि नियमित रूप से उन्हें मिलती रहती है.”

गोएटिंगटन विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ कहते हैं कि आर्थिक दृष्टि से देखें तो राज्यों के लिए यह एक बुरा सौदा है क्योंकि काफी पहले वो एकमुश्त राशि देने में सक्षम थे.

जर्मनी की सरकार अब चाहती है कि भलाई इसी में है कि सरकार की ओर से किए जाने वाले इस भुगतान को बंद किया जाए. गृह मंत्रालय में इस मामले पर एक वर्किंग ग्रुप बना दिया गया है जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और चर्च के पदाधिकारी उम्मीद कर रहे हैं कि कोई समुचित हल निकल आएगा.

इस साल के अंत तक बातचीत का दौर चलेगा जिसमें यह तय किया जाएगा कि मुआवजे के तौर पर चर्चों को कितना पैसा दिया जाए और मौजूदा भुगतान व्यवस्था को कब तक जारी रखना चाहिए.

बेशुमार दौलत दांव पर

साल 2020 में तत्कालीन विपक्षी पार्टियों नवउदारवादी एफडीपी, लेफ्ट पार्टी और पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी ने एक ड्राफ्ट बिल पेश किया था जिसमें दिखाया गया था कि इस सौदे में कितना पैसा दांव पर लगा है. बहस में निकलकर आया कि यह राशि करीब 11 अरब डॉलर है जो कि मौजूदा समय में हर साल अदा होनी वाली धनराशि का करीब 18.6 गुना ज्यादा है और इसे अगले बीस वर्षों तक दिया जाना है. निश्चित तौर पर इतने वर्षों तक मौजूदा राज्य भत्ते के तौर पर हर साल 60 करोड़ यूरो देते रहना होगा.

मुंस्टर में संवैधानिक कानून के विशेषज्ञ बोडो पीरोथ का मानना है कि मुआवजा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर तय किया गया है और वास्तव में यह चर्च और उससे संबंधित संपत्तियों की मूल कीमत से भी कहीं ज्यादा है.

जर्मनी में चर्चों के दो प्रमुख संगठन अब भी बहुत अधिक प्रासंगिक हैं
जर्मनी में चर्चों के दो प्रमुख संगठन अब भी बहुत अधिक प्रासंगिक हैंतस्वीर: Hasenonkel/YAY Images/IMAGO

डीडब्ल्यू के लिए वो इसकी गणना करके बताते हैं कि तीन प्रतिशत की वार्षिक ब्याज दर पर, चर्चों को सौ साल में अब तक उनकी मूल कीमत का करीब 194 गुना पैसा मिल चुका है और यदि पांच फीसदी की ब्याज दर से इसकी गणना की जाए तो अब तक उन्हें 600 गुना ज्यादा पैसा दिया जा चुका है.

हालांकि चर्च एक्सपर्ट हाइनिष इस गणना को स्वीकार नहीं करते. उनका कहना है कि ‘चर्च अपनी उन संपत्तियों से वंचित हैं जिनसे वो मुनाफा कमा सकते थे' और मुआवजे के तौर पर तो उन्हें वही मिल रहा है जिस राजस्व को वे गंवा चुके हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में हाइनिष कहते हैं, "यदि मैं किसी घर में लंबे समय तक किरायेदार के तौर पर रहता हूं और फिर उस घर को खरीदना चाहूं तो मैंने किराये के तौर पर जो पैसे दिए हैं, वो मुझे वापस थोड़े ना मिलेंगे.”

क्या चर्च कुछ कर सकते हैं?

जर्मनी में चर्च को जो आय होती है, उसकी तुलना में सरकार की ओर से किया जाने वाले ये भुगतान बहुत कम हैं. चर्च टैक्स से ही हर साल करीब 13 अरब यूरो कमाते हैं. इसके अलावा चर्च की संपत्तियों से भी अच्छी खासी आमदनी होती है जिसके बारे में चर्च के पादरी अक्सर चुप रहते हैं. ये दो चर्च जर्मनी के सबसे बड़े जमींदार माने जाते हैं जिनके पास अपने जंगल, खेत और कई अन्य तरह की संपत्तियां हैं. साथ ही, पब्लिशिंग हाउस, शराब, बैंकिंग और इन्श्योरेंस कंपनी जैसे तमाम व्यवसायों में भी इनकी हिस्सेदारी है.

 चर्च कई तरह के सहायता कार्यक्रमों में शामिल हैं
अगर चर्चों को सरकारी पैसा नहीं मिला तो अंतरराष्ट्रीय सहयता कार्यक्रमों पर असर होगातस्वीर: picture-alliance/KNA-Bild/W. Radtke

चर्च की संपत्तियों पर लंबे समय से नजर रख रहे एक पत्रकार कार्स्टन फ्रेर्क कहते हैं, "दोनों ही चर्चों का सालाना टर्नओवर करीब 150 अरब यूरो का है.”

डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं कि उनका अनुमान यह है कि दोनों ही चर्चों की सामूहिक संपत्ति करीब 300 अरब यूरो की है क्योंकि करीब 50 हजार व्यक्तिगत कंपनियों और कानूनी संस्थाओं से होने वाली आमदनी चर्च के आधिकारिक आंकड़ों को अस्पष्ट बना देती है.

फ्रेर्क कहते हैं कि सरकारी भत्तों को यदि खत्म कर दिया जाता तो चर्चों की ओर से व्यापक आबादी को दी जाने वाली तमाम सेवाओं और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय देनदारी को कोई खतरा नहीं होता. चर्चों की ओर से चाइल्ड केयर, नर्सिंग होम्स, अस्पताल जैसे केंद्र संचालित किए जाते हैं. वो कहते हैं, "सरकार से मिलने वाले लाभ और चर्चों के सामाजिक कार्यों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं हैं. इनमें से अधिकतम 2 फीसदी संस्थाएं ही ऐसी हैं जो चर्चों द्वारा वित्तपोषित हैं.”

कोई रास्ता नहीं है

चर्च एक्सपर्ट हाइनिष का मानना है कि यह पूरी प्रक्रिया ही त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इस बात की कोई समयसीमा ही नहीं तय की गई है कि इसका हल कब तक अवश्य निकल जाना चाहिए. यहां तक कि इस मामले में जर्मनी की संवैधानिक अदालत भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती या फिर आगे बढ़कर किसी तरह के प्रस्ताव का दबाव नहीं बना सकती. कुल मिलाकर, एक सौदे से राजनीतिक रूप से कुछ भी हासिल नहीं होगा क्योंकि किसी भी तरह के समझौते की स्थिति में कम से कम एक पक्ष तो जरूर नाखुश रहेगा.

यह सब वास्तव में तेजी से बढ़ती सेक्युलर जर्मन आबादी की पृष्ठभूमि के खिलाफ है जिसमें से सिर्फ आधे ऐसे हैं जो कि दो में से किसी एक संप्रदाय को मानते हैं. और माना जा रहा है कि इनकी सदस्यता साल 2060 तक घटकर आधी रह जाएगी. मौजूदा समय में जो राजनीतिक डर है, उसके विपरीत, किसी संभावित सौदे को लेकर हो रही आलोचना सिर्फ लोगों की ओर से उदासीनता या इसके पीछे के जटिल इतिहास के बारे में सामान्य ज्ञान की कमी से ही खत्म हो सकती है.