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पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना खारा पानी बन सकता है मीठा

रमीशा अली अनुवादः सोनम मिश्रा
८ सितम्बर २०२५

डिसैलिनेशन यानी समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाने की प्रक्रिया अकसर पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाती है. वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर इसे सही तरीके से किया जाए, तो इसके नुकसान को काफी कम किया जा सकता है.

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इस्राएल में पानी को मीठा बनाने वाला संयंत्र
पानी को मीठा बनाने की प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में ब्राइन निकलता हैतस्वीर: JIM HOLLANDER/Epa/picture-alliance

हजारों सालों से इंसान समुद्र के पानी को पीने लायक बनाने की कोशिश करता आ रहा है. पुराने समय में नाविक समुद्र का पानी उबालकर भाप से उसे मीठा बनाते थे. बाद में इंजीनियरों ने फिल्टर और रसायनों का इस्तेमाल करना शुरू किया.

अब जब जलवायु तेजी से बदल रहा है और लगातार आबादी बढ़ रही है. जगह-जगह सूखा पड़ रहा है, तो समुद्र के पानी को पीने लायक बनाना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है. डिसैलिनेशन सबसे तेजी से मध्य पूर्व, उत्तर अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्सों में फैल रही है, जहां समुद्र तो बहुत है लेकिन मीठा पानी बहुत कम होता जा रहा है.

साल 2023 में दुनिया भर में इसके लिए लगभग 16,000 प्लांट काम कर रहे थे, जो हर दिन 56 अरब लीटर मीठा पानी बना सकते हैं. जिसका मतलब हुआ प्रत्येक इंसान के लिए 7 लीटर पानी.

लेकिन समुद्र के पानी को पीने लायक बनाने की यह प्रक्रिया पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाती है. यह इस पर निर्भर करता है कि प्लांट समुद्र के पानी को किस तरीके से साफ करते है. इसमें ऊर्जा के लिए कोयला इस्तेमाल किया जाता है या अक्षय ऊर्जा.

स्पेन में पानी को मीठा बनाने वाला संयंत्र
पानी को मीठा बनाने की प्रक्रिया में पर्यावरण को बहुत नुकसान होता हैतस्वीर: European Science Communication Institute (ESCI)

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डिसैलिनेशन का नुकसान

समुद्र के पानी से इंसानों की जरूरत पूरी करने में सबसे बड़ी रुकावट उसका अत्यधिक नमकीन होना है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, एक व्यक्ति को रोजाना 50 से 100 लीटर पानी की जरूरत होती है. समुद्र का पानी पीने लायक नहीं होता, क्योंकि इसमें बहुत ज्यादा नमक होता है. अगर इसे सीधे पिया जाता है, तो यह प्यास बुझाने के बजाय शरीर को और डिहाइड्रेट कर देता है.

आजकल समुद्र के पानी को मीठा बनाने के लिए सबसे ज्यादा रिवर्स ऑस्मोसिस को इस्तेमाल किया है. इसमें मेम्ब्रेन का इस्तेमाल किया जाता है, जो नमक को छान देती है और मीठा पानी अलग हो जाता है. लेकिन इस प्रक्रिया में हर एक लीटर मीठा पानी बनाने पर लगभग उतनी ही मात्रा में ब्राइन (बहुत नमकीन पानी) खराब हो जाता है.

इस ज्यादा नमकीन पानी में अक्सर क्लोरीन और दूसरी रसायनों होते हैं, जिन्हें मशीनों पर नमक जमने से रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

ब्राइन से छुटकारा पाने का सबसे आसान तरीका है, इसे वापस समुद्र में छोड़ देना. लेकिन जब इसे समुद्र में डाला जाता है, तो यह नीचे की ओर बैठ जाता है और समुद्र की तह में मोटी परत बना लेता है. यह परत पानी में ऑक्सीजन को कम कर देती है, जो कि समुद्री जीवन के लिए खतरनाक होता है. खासकर शैवाल, स्पंज और समुद्री घास के लिए, जो बाकी प्रजातियों के भोजन और आवास के लिए जरूरी है.

ब्राइन में अक्सर जंग लगे पाइपों से निकले भारी धातु भी मिले होते हैं, जो मछलियों और पूरे समुद्री तंत्र के लिए हानिकारक होते हैं.

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ब्राइन को सही तरीके से फैला कर समुद्र में छोड़ा जाए, तो यह जरूरी नहीं कि हानिकारक ही हो. नीदरलैंड्स के आईएचई डेल्फ्ट इंस्टिट्यूट फॉर वॉटर एजुकेशन के प्रोफेसर सर्जियो सालिनास रोड्रिगेज बताते हैं, "डिसैलिनेशन प्लांट गंदगी हटाने के लिए लौह क्लोराइड या एल्युमिनियम सल्फेट जैसे नमक-आधारित रसायन डालते हैं और नमक जमने से रोकने के लिए एंटीस्‍केलेंट्स का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन इनकी मात्रा समुद्र की विशालता के मुकाबले बहुत ही कम होती है.”

ब्राइन के असर को कैसे कम किया जा सकता है?

ब्राइन के नुकसान को कम करने का एक तरीका है, इसे पतला यानी डाइल्यूट करना. जैसा कि कैलिफोर्निया (अमेरिका) के बड़े कार्ल्सबैड डिसैलिनेशन प्लांट में किया जाता है. जो सूखे से प्रभावित सैन डिएगो क्षेत्र के लिए हर दिन लगभग 189 करोड़ लीटर यानी 5 करोड़ गैलन मीठा पानी बनाता है.

2018 तक कार्ल्सबैड प्लांट, ब्राइन को पास के पावर प्लांट के ठंडे पानी (कूलिंग वाटर) में मिलाकर समुद्र में छोड़ता था. लेकिन पावर प्लांट बंद होने के बाद अब यह अतिरिक्त समुद्री पानी खींचकर ब्राइन को पतला करते हैं. इस प्रक्रिया में "फिश-फ्रेंडली पंप्स” लगाए गए हैं, ताकि समुद्री जीवों को कम से कम चोट पहुंचे.

ब्राइन के समुद्र में जाने के बाद, वहां की लहरें, समुद्री धाराएं और कार्ल्सबैड के पास का आगुआ हेडियोन्डा लगून (झीलनुमा समुद्री इलाका) उसे और ज्यादा फैला देते हैं.

2019 से 2023 तक किए गए चार साल के अध्ययन में पाया गया कि कार्ल्सबैड के समुद्र तट के पानी "स्वस्थ और बहुत कम प्रभावित” रहे. हालांकि, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, सांता क्रूज के वैज्ञानिकों ने 2019 में शोध कर बताया कि कुछ जगहों पर खारापन तय सीमा से ज्यादा पाया गया. उनका कहना था कि और मजबूत डाइल्यूशन से स्थिति बेहतर हो सकती है.

लेकिन यह तरीका हर जगह काम नहीं करता. जैसे फारस की खाड़ी उथली है, पहले से ही बहुत नमकीन है और वहां ऐसी मजबूत समुद्री धाराएं नहीं है, जो ब्राइन को फैला सकें. यही वजह है कि जब भी कोई नया डिसैलिनेशन प्लांट बनाया जाता है, तो स्थानीय समुद्री परिस्थितियों जैसे धारा, पानी का प्राकृतिक बहाव और संभावित असर का गहन अध्ययन जरूरी होता है.

प्रोफेसर रोड्रिगेज कहते हैं, "इसमें धाराओं, प्राकृतिक प्रवाह और संभावित असर का अध्ययन रखना चाहिए.”

ब्राइन से खनिज निकालना

कुछ वैज्ञानिक ब्राइन को कचरा नहीं, बल्कि संसाधन मानते हैं. स्पेन के टेनेरीफे द्वीप पर, यूरोपीय संघ का एक प्रोजेक्ट सीफॉरवैल्यू डिसैलिनेशन प्लांट से निकलने वाले ब्राइन से कीमती खनिज निकालने पर काम कर रहा है. शोधकर्ता इसमें से 10 खनिजों (जैसे लिथियम और मैग्नीशियम) को निकालना चाहते हैं, जो कि बैटरी और मैन्युफैक्चरिंग के लिए बहुत जरूरी होते हैं. जिसके जरिये उनका लक्ष्य है कि पीने का पानी ज्यादा बने और ब्राइन की बर्बादी कम हो.

रिसर्चर सैंड्रा कासस गारिगा ने कहा, "आम तौर पर डिसैलिनेशन में 50 फीसदी ब्राइन निकलता है, लेकिन हम इसे घटाकर लगभग 20 फीसदी करना चाहते हैं. यानी अगर 1 घन मीटर समुद्री पानी लिया जाए, तो उससे लगभग 800 लीटर मीठा पानी और सिर्फ 200 लीटर ब्राइन निकले.”

शुरुआती परीक्षण एक मोबाइल लैब में किए गए, जहां अलग-अलग तकनीकों से ब्राइन से कीमती खनिज निकालने में सफलता मिली. गारिगा के अनुसार, "हम कोशिश करते हैं कि यह प्रक्रिया जितनी हो सके उतनी पर्यावरण के लिए अच्छी हो यानी समुद्र से पीने का पानी और जरूरी खनिज निकाले और नुकसान कम से कम करें.”

अमेरिका समेत कई और देशों में भी कंपनियां मैग्नीशियम जैसे खनिज ब्राइन से निकालने के लिए पायलट प्रोजेक्ट चला रही हैं.

सीफोरवैल्यू के लैब में ब्राइन से खनिज निकालता एक रिसर्चर
ब्राइन से खनिज निकाल कर पर्यावरण को होने वाला नुकसान घटाया जा सकता हैतस्वीर: European Science Communication Institute (ESCI)

डिसैलिनेशन के लिए सही जगह का चुनाव जरूरी

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर डिसैलिनेशन प्लांट लगाने के लिए सही जगह का चुनाव किया जाए, तो कई पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है.

सऊदी अरब के "सस्टेनेबल एनर्जी सिस्टम्स” रिसर्च सेंटर में पोस्टडॉक्टोरल फेलो कोतब मोहम्मद ने एक ऐसा टूल बनाया है, जो यह बताता है कि सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से चलने वाले डिसैलिनेशन प्लांट के लिए कौन-सी जगह सबसे उपयुक्त होगी.

उन्होंने बताया कि इस मॉडल को सबसे पहले मिस्र के लाल सागर तट पर परखा गया और इसे उत्तरी अफ्रीका, खाड़ी देशों, दक्षिण एशिया और यूरोप के कुछ सूखे तटीय क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकता है. वर्तमान में ज्यादातर प्लांट जीवाश्म ईंधन पर चलते हैं और वातावरण को गर्म करने वाली गैसें निकालते हैं.

इस मॉडल के तीन बड़े पर्यावरणीय फायदे हैं. यह जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर सकता है, जमीन का क्षरण और कटाव घटा सकता है और इससे स्थानीय संसाधनों का बेहतर और कुशल उपयोग हो सकता है.

उन्होंने यह भी बताया कि अगर यह प्लांट आबादी वाले क्षेत्रों और पहले से मौजूद ढांचे के पास लगाए जाएं, तो लंबी पानी की पाइपलाइन बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इससे जमीन और ऊर्जा दोनों की बचत हो सकती है.

डेल्फ्ट इंस्टीट्यूट के रोड्रिगेज का कहना है, "अगर सही तरीके से ध्यान रखा जाए, तो डिसैलिनेशन पर्यावरण की दृष्टि से भी स्वीकार्य हो सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि प्लांट का डिजाइन सही हो, समुद्र से पानी लेने और वापस छोड़ने की जगह सोच-समझकर चुनी जाए.”