जर्मनी का कार्निवाल, जहां राजपथ की झांकी और होली मिलते हैं
२० फ़रवरी २०२३बादल, तितली, बैंगन, भभकता सूरज या फ्रेंच फ्राई, कुछ भी रूप धर सकते हैं और कोई आपको हैरानी से नहीं घूरेगा. बल्कि आप सादे कपड़ों में हैं, तो बोरिंग माने जाएंगे और खुद ही नजरें चुराएंगे. कोई पब्लिक आयोजन जिसमें अजनबी साथ मिलकर नाचें. आप दिन में टल्ली होकर घूमें और कोई जज ना करे. 8 साल का बच्चा और 60 बरस की महिला, दोनों भीड़ में घुसकर ऊपर से बरसायी जा रही टॉफी बटोरें.
ये सब, और भी बहुत कुछ चाहिए, तो कार्निवाल में आइए.
दुनिया के किसी भी हिस्से को देख लीजिए. उत्सवों की परंपरा कुछ खास पहलुओं से गुंथी होती है. नई फसल का उल्लास. अच्छे-खुशनुमा मौसम की आमद. प्रकृति की उपासना. लोक मान्यता. किसी खास घटना की यादगार. या, धर्म से जुड़े अवसर. आमतौर पर उत्सव इन्हीं थीम्स के इर्द-गिर्द विकसित होते हैं.
कार्निवाल में बसंत के आने की खुशी भी है और धार्मिक पक्ष भी. पश्चिमी ईसाई परंपरा में ईस्टर पर ईसा के फिर जी उठने के जश्न से पहले के छह हफ्ते लेंट कहलाते हैं. ये संयम और पश्चाताप के दिन माने जाते हैं. परहेज से रहना, कम खाना, व्रत करना, आत्मअवलोकन करना, मौज-मस्ती से दूरी रखना इस अवधि का स्वभाव माना जाता है. कार्निवाल, इस संयम की अवधि के शुरू होने से पहले की मस्ती है. खुलकर जी लो, खूब मौज कर लो, बेपरवाही से हंसो, नाचो, गाओ. यूं कि कौन जाने, कल हो ना हो.
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जर्मनी में कार्निवाल
कार्निवाल दुनिया के कई देशों में मनाए जाते हैं. हर देश की तरह जर्मनी की अपनी अलग कार्निवाल परंपरा है. यहां सबसे बड़ा कार्निवाल आयोजन कोलोन शहर में होता है, राइन नदी के किनारे. ये कैथोलिक गिरजे का गढ़ भी है. 11 नवंबर सुबह 11:11 बजे कार्निवाल सीजन की शुरुआत होती है. इसे साल का पांचवीं ऋतु भी कहते हैं. लोग रंगीन, चमकीले-भड़कीले, अलग-अलग तरह की वेशभूषा में कार्निवाल मौसम की शुरुआत करते हैं. लेकिन आखिर में इसके सबसे खास दिन होते हैं छह, जिनमें स्ट्रीट कार्निवाल होता है. इसकी शुरुआत वाइबरफास्टनाख्ट को होती है, जो आमतौर पर कार्निवाल गुरुवार भी कहलाता है.
इसे औरतों का कार्निवाल भी कहते हैं. इसकी परंपरा उस दौर से आती है, जब महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता था. उनसे मेहनती, आज्ञाकारी, पति परायण, सभ्य, सुशील होने की अपेक्षा की जाती थी. तो इससे जुड़ी कहानी ये है कि बॉन और कोलोन के बीच एक छोटा सा शहर है, बॉयल. यहां कुछ महिलाएं रहती थीं, जो कपड़े धोने का काम करती थीं. उनके पति भी काम करते थे, लेकिन तय घंटों में. उनके जीवन में काम के अलावा मस्ती और पार्टी भी थी. वहीं महिलाएं ना केवल ग्राहकों के कपड़े धोतीं, बल्कि अपने पतियों के भी कपड़े साफ करतीं. फिर साफ-सुथरे कपड़े पहनकर पति कार्निवाल की पार्टी करने जाते और पत्नियां घर पर रहकर बाकी के काम करतीं और बच्चे संभालतीं.
तो 1824 में एक रोज इन महिलाओं ने उकताकर काम छोड़ा और ग्रुप बनाकर एक पब में शराब पीने गईं. वहां उन्होंने अपना एक क्लब बनाया. फिर साथ मिलकर बॉयल सिटी हॉल पहुंचीं और कहा, आज के दिन हमारी चलेगी. धीरे-धीरे ये किस्सा राइनलैंड के और भी शहरों की महिलाओं तक पहुंचा. उन्होंने भी अपने-अपने क्लब बनाए और सिटी हॉल पहुंच गईं. यही परंपरा वाइबरफास्टनाख्ट के साथ चलती आ रही है. सांकेतिक तौर पर पुरुषों की ताकत कतरते हुए महिलाएं उनकी टाई आधी काट देती हैं. और बदले में पुरुष (आपसी सहमति से) महिला से किस पाते हैं.
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औरतों का गुरुवार
वाइबरफास्टनाख्ट से शुरू होता है, छह दिन का एक रंगारंग उत्सव. नॉनस्टॉप पार्टी. ढेर सारा खाना, पीना, नाचना, गाना. स्ट्रीट कार्निवाल, यानी सड़क पर होने वाले आयोजन-परेड का चरम आता है रोजेनमोन्टाग को. इसका हिंदी अनुवाद होगा, गुलाब वाला सोमवार. अलग-अलग किस्म के गेटअप में दिख रहे लोग. रंगीन बाल, रंगीन चश्मे. कुछ ना हुआ, तो मुंह पर दाढ़ी-मूंछ लगा ली. नाक पर लाल गोला बना लिया या पेंट से लकीरें खींच दीं.
और भी मिनिमलिस्ट होना चाहें, तो खरगोश जैसे कान निकाले हेयरबैंड लगा लीजिए या बस कोई रंगीन टोपी-हैट पहन लीजिए. कोई जादूगर बना हुआ है, तो कोई कद्दू, कोई स्पाइडर मैन. मैंने एक लड़की को देखा, उसने सिर पर मुकुट सा लगा रखा था, जिससे गोलाकार पीले सिरे निकले हुए थे. मुझे लगा, वो सूरजमुखी बनी है. लेकिन उसने बताया कि वो फ्रेंच फ्राई बनी है! मतलब गेटअप में कितना बोल्ड और रचनाशील होना है, आप पर है.
रंग-बिरंगे परिधान की परंपरा कैसे आई, इसका अतीत भी चर्च से जुड़ा है. ये जब की बात है, तब नैतिकता और लोगों का आचरण चर्च तय करता था. चर्च की बताई नैतिकता से इतर जाना, पाप माना जाता था. फिर किसी पॉइंट पर आकर छूट के तौर पर छह दिन दिए गए. इन छह दिनों में आप किसी को चूम सकते थे, किसी के भी साथ नाच सकते थे, सेक्स कर सकते थे. लेकिन एक दिक्कत थी. इन छह दिनों के बाद आपको उसी समाज में लौटना और जीना होता था, जहां आप दायरे में बंधे थे. ऐसे में अपनी पहचान छिपाने के लिए लोग भेष बदलने लगे. धीरे-धीरे दौर बदला, पहचान छिपाने की मजबूरी भी खत्म हुई, लेकिन गेटअप धारण करने की परंपरा कार्निवाल के साथ नत्थी हो गई.
पहचाने प्रतीक, नए अनुभव
कल्पना कीजिए कि राजपथ पर होने वाली गणतंत्र दिवस परेड में होली पार्टी मिला दें. इस मिश्रण से जो चीज बनेगी, कमोबेश वो रोजेनमोन्टाग को कोलोन में होने वाले आयोजन जैसी दिखेगी. हर उम्र के लोग दिखेंगे. हर किस्म के रंग में दिखेंगे. ज्यादातर लोग दोस्तों, परिवार वालों के साथ ग्रुप में आए हुए और कई सैलानी भी, जो खास इस मौके पर कोलोन पहुंचते हैं. कई सारे मंच, उनपर बजती धुनें, ड्रमिंग, कोरस में गाते लोग, जो बीच-बीच में कोरियोग्राफर भी बन जाते हैं. आपको डांस नहीं आता, कोई दिक्कत नहीं. पास खड़ा कोई शख्स आपकी बांह में बांह जोड़ेगा और वहां मौजूद सभी लोग दायें-बायें हिलते हुए लहर सी संरचना बनाएंगे. इससे आसान डांस का स्टेप शायद ही कोई हो!
बीच की सड़क पर बारी-बारी से परेड की झांकियां निकलेंगी. इनमें पुलिस, फायरब्रिगेड और आर्टिलरी की झांकियां भी शामिल हैं. कोई ग्रुप घोड़े पर संगीत बजाता आएगा, कोई बैंड की धुन निकालते, तो कोई बड़ी गाड़ियों में गाने गाते. झांकी में शामिल लोगों के हाथों में ढेर सारे गुलाब होंगे और किसी ने अपनी जेब में, किसी ने कंधे पर टंगे थैले में, तो कोई गाड़ी पर लगे तोप में भरकर हर तरफ जमा भीड़ पर टॉफियां और चॉकलेट उछालेंगे. झांकी का कोई सदस्य किनारे खड़ी किसी महिला को गुलाब थमाएगा, वो जवाब में उसे चूमेगी. बच्चे साथ में लाया थैला खोलकर टॉफी-चॉकलेट की बारिश से अपने हिस्से की दावत बटोरेंगे.
आलोचना की परंपरा भी शामिल
कार्निवाल में ढेर सारी मस्ती तो है, लेकिन बस मस्ती नहीं है. यह राजनैतिक आलोचना, व्यंग्य और अथॉरिटीज के प्रति विरोध जताने का भी मौका है. कभी यह मंच पर दिए गए भाषण की शक्ल में हो सकता है, तो कभी बैनर-पोस्टर पर बने चित्र या लिखे हुए शब्दों से. लोग वेशभूषा से भी विरोध या आलोचना जताते हैं. जैसे इस साल कार्निवाल परेड में कई लोग यूक्रेन के प्रति समर्थन जताते हुए यूक्रेनी झंडे के रंग की पोशाक पहने दिखे.
राजनैतिक आलोचना की अभिव्यक्ति से जुड़ी परंपरा का एक मशहूर नाम हैं, कार्ल कूपर. ये नाजी जर्मनी के दौर की बात है. कार्निवाल परेड भी यहूदी विरोधी अपमानजनक और नस्ली प्रदर्शनों से अछूते नहीं रहे थे. जर्मनी के डुसेलडॉर्फ में जन्मे कार्ल कूपर व्यंग्यात्मक अंदाज में सत्ता की आलोचना करते थे. नाजियों ने उन्हें चेतावनी दी, मारा भी, लेकिन कार्ल नहीं बदले. स्पीगल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1937 के कोलोन कार्निवाल में कार्ल मंच पर पहुंचे, नाजी सलूट के स्टाइल में अपने हाथ आगे की ओर बढ़ाए और कहा, "ना, ना, हमारे बेसमेंट में जमी धूल इतनी ऊंची है." नाजियों ने कार्ल के बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया.
आज भी भूत-प्रेत को क्यों मानते हैं लोग?
सवाल भी हैं कई
हालिया बरसों में नस्ली असंवेदनशीलता से भी सवाल उठा है. कुछ लोग गेटअप रचते हुए चेहरे को भूरा-काला करते हैं. इसके अलावा कल्चरल अप्रोप्रिएशन से जुड़ी आलोचनाएं भी हैं. भीड़भाड़ की आड़ में होने वाली छेड़छाड़ और सेक्सिस्ट तौर-तरीकों पर भी सवाल उठते हैं. ये सप्राइजिंग नहीं है. "बुरा ना मानो होली है" की आड़ में भारत में भी तो कितनी ही बदतमीजी होती है. जहां इंसान शामिल होंगे, अपनी आदतें, असंवेदनशीलताएं और कुंठाएं भी लाएंगे. ऐसा ही कार्निवाल के भी साथ है. जैसा कि मेरे एक दोस्त ने अपने अनुभव बताते हुए कहा, "कार्निवाल एक प्लेटफॉर्म है, जहां सोसायटी की बदतर और बेहतर, दोनों तरह के रुझान जताए जाते हैं."
एक आखिरी बात. कार्निवाल के सबसे लोकप्रिय गेटअप्स में से एक "विच" की वेशभूषा भी है. मुझे पहले हैरानी हुई. कुछेक सदी पहले तक यूरोप में महिलाओं को चुड़ैल बताकर उनपर जिस किस्म की क्रूरता की जाती थी, वो इतिहास का हिस्सा है. तो फिर क्या वजह है कि लड़कियों के बीच चुड़ैल का गेटअप इतना प्रचलित है? बस मस्ती के लिए? या मीडिएवल दौर का आकर्षण? या, बैडएस? या शायद ये सभी. अच्छा लगा कि कभी जहां औरतों की विचहंटिंग होती थी, वहां आज विच की वेशभूषा पॉपुलर कल्चर का हिस्सा है. ये एक साथ इतिहास और बदलाव, दोनों की याद दिलाता है. उम्मीद है एक दिन डायन बताकर औरतों को नंगा घुमाना, मैला खिलाना और जान से मारना भारत में भी गुजरे अतीत की बात हो जाएगी.