एससीओ सम्मेलनः भारत और दुनिया के लिए क्या हैं मायने
३० अगस्त २०२५चीन का अपना दौरा शुरू होने से पहले पुतिन ने चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ को एक लंबा इंटरव्यू दिया. इसमें उन्होंने कहा कि यह दौरा केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं बल्कि उस विचारधारा को दोबारा जिंदा करने की कोशिश है जिसे पुतिन बार-बार दोहराते हैं, "बहुपक्षीय वर्ल्ड ऑर्डर”, यानी ऐसा वैश्विक ढांचा जिसमें केवल अमेरिका या पश्चिमी देश नहीं बल्कि कई ताकतें मिलकर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तय करें.
पुतिन ने कहा कि शंघाई सहयोग संगठन सम्मेलन से "नए वर्ल्ड ऑर्डर की दिशा में बहुत मजबूत गति” मिलेगी. उन्होंने अमेरिका या यूक्रेन युद्ध का नाम नहीं लिया, लेकिन यह स्पष्ट है कि उनका मकसद अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देना है.
पुतिन ने यह भी बताया कि रूस और चीन ने लगभग पूरी तरह से अपने व्यापार को राष्ट्रीय मुद्राओं यानी रूबल और युआन में स्थानांतरित कर दिया है. डॉलर पर निर्भरता घटाने की यह प्रक्रिया उनके अनुसार मौजूदा वैश्विक संतुलन को बदलने की शुरुआत है.
एससीओ क्या है और क्यों महत्वपूर्ण है?
1990 के दशक में गठित और 2001 में औपचारिक रूप से स्थापित शंघाई सहयोग संगठन की शुरुआत आतंकवाद से लड़ाई और आर्थिक सहयोग को गहराने के लिए हुई थी. अब इसके 10 स्थायी सदस्य हैं - रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, ईरान, बेलारूस, कजाख़स्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान.
इस साल का सम्मेलन 31 अगस्त से 1 सितंबर तक चीन के उत्तरी बंदरगाह-शहर तियानजिन में हो रहा है. चीन इस समय संगठन की अध्यक्षता कर रहा है. उसका कहना है यह एससीओ अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन होगा, जिसमें 20 देशों और 10 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे.
इस बार इस सम्मेलन के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तियानजिन पहुंचे हैं. 2018 के बाद उनका यह पहला चीन दौरा है. भारत और चीन के रिश्ते 2020 की सीमा झड़प के बाद ठंडे रहे, लेकिन पिछले साल अक्टूबर में रूस में मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद से कुछ सुधार दिखा है.
रूस ने पुतिन की चीन यात्रा को "अभूतपूर्व” बताया है. इसका कारण है, यात्रा की लंबाई, बैठकों की संख्या और एजेंडे का विस्तार. चीन रूस का सबसे बड़ा ऊर्जा ग्राहक है. रूस अपने तेल और गैस के निर्यात से यूक्रेन युद्ध को फंड कर रहा है. वहीं, चीन रूस को ऐसे सामान उपलब्ध करा रहा है जो हथियार बनाने में काम आते हैं. दोनों देशों ने डॉलर से दूरी बनाकर युआन-रूबल लेनदेन को मजबूत किया है.
मॉस्को के कई विश्लेषक इस यात्रा को रूस के "पश्चिम से मुंह मोड़ने” और चीन से अटूट दोस्ती का प्रतीक मानते हैं. यह भी माना जा रहा है कि अमेरिका ने दोनों के बीच दूरी बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन वह असफल रहा.
3 सितंबर को बीजिंग में होने वाली विशाल सैन्य परेड में पुतिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग के मुख्य मेहमान होंगे. यह परेड द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के 80 वर्ष पूरे होने पर आयोजित की जा रही है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव का संदेश
इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश भी पहुंचे हैं. उन्होंने शी जिनपिंग से मुलाकात के दौरान कहा कि आज जब "बहुपक्षवाद पर हमला हो रहा है”, ऐसे समय में चीन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. गुटेरेश ने चीन को "अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का मूल स्तंभ” बताया और शांति और विकास में उसकी सक्रिय भागीदारी की सराहना की.
जवाब में शी जिनपिंग ने कहा कि चीन हमेशा संयुक्त राष्ट्र का "विश्वसनीय साझेदार” रहेगा और दुनिया में स्थिरता लाने के लिए जिम्मेदारी साझा करेगा.
पुतिन और शी की नजदीकी के बीच भारत की मौजूदगी विशेष महत्व रखती है. भारत और चीन एशिया की दो सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश हैं और लंबे समय से प्रतिस्पर्धी भी. लेकिन भारत एससीओ का हिस्सा है और इस मंच पर उसे रूस और चीन दोनों से बातचीत का अवसर मिलता है.
मोदी का यह दौरा जापान यात्रा के तुरंत बाद हो रहा है, जहां जापान ने भारत में 68 अरब डॉलर निवेश की घोषणा की. इस तरह भारत एक ओर जापान जैसे अमेरिका के सहयोगियों के साथ रिश्ते मजबूत कर रहा है, तो दूसरी ओर चीन और रूस जैसे प्रतिद्वंद्वियों से संवाद भी बनाए रख रहा है. यह भारत की संतुलन साधने की रणनीति है.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति का मंच
पुतिन चीन में तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोआन से यूक्रेन युद्ध पर चर्चा करेंगे. तुर्की अब तक तीन दौर की शांति वार्ता आयोजित कर चुका है, लेकिन नतीजा नहीं निकला. पुतिन ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियन से भी मिलेंगे और तेहरान के परमाणु कार्यक्रम पर चर्चा करेंगे.
ईरान हाल ही में फिर से पश्चिमी दबाव में आया है, क्योंकि ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने संयुक्त राष्ट्र के पुराने प्रतिबंध वापस लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. रूस ने इन प्रतिबंधों को "अपरिवर्तनीय नुकसान पहुंचाने वाला कदम” कहा है.
इन बैठकों से साफ है कि रूस अब पूरी तरह से "ग्लोबल साउथ” यानी उभरते देशों के साथ खड़ा होना चाहता है. ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) जैसे मंचों और अब एससीओ के जरिए पुतिन अमेरिकी दबाव का जवाब देना चाहते हैं.