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उम्र के साथ एआई की याददाश्त भी कमजोर होती है

१७ फ़रवरी २०२५

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की एक रिसर्च ने बताया है कि एआई के पुराने मॉडल बीमारियों का पता लगाने के लिए भरोसेमंद नहीं हैं.

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चैटबॉट के साथ एक शख्स
दिमाग संबंधी बीमारियों का पता लगाने में एआई की भूमिका को बढ़ावा दिया जा रहा है. तस्वीर: Nadine Yehya/UC Davis Health/University of California Regents

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में करीब 50 करोड़ लोग आज जेनेरिटव एआई का इस्तेमाल कर रहे हैं. दुनिया के 209 देशों में हर आठ में से एक कर्मचारी एआई को अपने काम में शामिल कर चुका है. रोजमर्रा के जीवन में जेनेरेटिव एआई की दखल आज हर स्तर पर है. खासकर स्वास्थ्य से जुड़े सवालों के जवाब के लिए भी लोग डॉक्टरों से पहले एआई के पास जाने लगे हैं. इससे सवाल उठने लगे हैं कि क्या भविष्य में एआई डॉक्टरों की जगह ले लेगा.

क्या डॉक्टरों की जगह लेने को तैयार है एआई?

इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने एक रिसर्च की है. रिसर्च के मुताबिक एआई के सभी लार्ज लैंग्वेज मॉडल के पुराने वर्जन में डिमेंशिया के लक्षण देखने को मिले. इन्हें आम भाषा में चैटबॉट कहते हैं.

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल यानी बीएमजे के मुताबिक सिर्फ इंसान ही नहीं बल्कि समय के साथ जेनेरेटिव एआई की भी सोचने, समझने और सीखने की क्षमताएं घटती हैं. एआई मॉडल जितने पुराने होते हैं क्षमता उतनी प्रभावित होती है. बिलकुल वैसे ही जैसे बढ़ती उम्र के साथ इंसानों की दिमागी क्षमता भी प्रभावित होती है.

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एआई भी होता है बूढ़ा

बीएमजे के वैज्ञानिकों ने इंसानों में डिमेंशिया के शुरुआती लक्षण बताने वाले "मॉन्ट्रियाल कॉग्निटिव असेसमेंट” टेस्ट सीरीज का इस्तेमाल एआई चैटबॉट के लिए किया. रिसर्च में पाया गया कि एआई चैटबॉट के पुराने मॉडल इस टेस्ट में उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए. इस टेस्ट के लिए एआई को भी वही निर्देश दिए गए थे जो इंसानों को दिए जाते हैं. चैटबॉट के टेस्ट का मूल्यांकन पेशेवर न्यूरोलॉजिस्ट ने किया.

इसमें सबसे ज्यादा नंबर चैट जीपीटी के वर्जन 4o को मिले. दूसरे नंबर पर चैटजीपीटी 4 रहा, तीसरे पर क्लॉड और चौथे पर जेमिनी. बढ़ते हुए क्रम में नंबरों और शब्दों को एक दूसरे से जोड़ने और एक तय समय दिखाती हुई घड़ी का चित्र बनाने में एआई चैटबॉट फिसड्डी साबित हुए. हालांकि, भाषा, नाम देना, ध्यान बनाए रखने जैसे कामों में एआई चैटबॉट का प्रदर्शन बेहतर रहा.

रिसर्चरों ने कहा कि इस जांच के नतीजे बताते हैं कि इंसानों और चैटजीपीटी में कहां फर्क है. डॉक्टरों के कई ऐसे काम हैं, जिनके लिए एआई का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. इसलिए यह कहना कि एआई डॉक्टरों की जगह लेगा सही नहीं है.

वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि रिसर्च में यह साफ नजर आया कि एआई चैटबॉट की भी सोचने, समझने की क्षमता कम होती है. पुराने वर्जन की याददाश्त प्रभावित होती है. ऐसे में मरीजों के इलाज के लिए एआई की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है और इससे मरीजों का आत्मविश्वास भी कम हो सकता है.

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पुराने एआई चैटबॉट मॉडल की सीमाएं

हालांकि, एआई के हर मॉडल की अपनी सीमाएं भी हैं. एआई चैटबॉट कैसा प्रदर्शन करते हैं यह उनके ट्रेनिंग डेटा की गुणवत्ता और समय पर निर्भर करता है. अगर किसी मॉडल का डेटा पुराना हो चुका है तो इसका असर उसके प्रदर्शन पर भी दिखेगा.

एआई सेक्टर में हर दिन कोई ना कोई बदलाव हो रहा है. जिस मॉडल का अलगोरिद्म जितना बेहतर और नया होगा उतना ही उसका प्रदर्शन भी. पुराने मॉडल अपनी अलगोरिद्म की सीमाओं के कारण कठिन सवालों या टास्क का आउटपुट देने में पिछड़ सकते हैं.

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बीमारियों का पता लगाने में कितना सटीक है एआई

स्वास्थ्य सेवाओं में एआई के इस्तेमाल की सीमाओं पर यह बहस नई नहीं है. दुनिया भर में डिमेंशिया, पार्किंसन, अल्जाइमर, स्तन कैंसर और दूसरी बीमारियों का समय पर पता लगाने में एआई के इस्तेमाल को लेकर शोध हो रहे हैं.

स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च बताती है कि एआई के लार्ज लैंग्वेज मॉडल से मरीजों को फायदा हो सकता है. रिसर्च में सामने आया कि बीमारियों का पता लगाने में चैटजीपीटी का प्रदर्शन शानदार रहा. रिसर्च में पचास डॉक्टरों और चैटजीपीटी को शामिल किया गया था. उन्हें अलग अलग मरीजों के केस दिए गए थे जिसके आधार पर उन्हें बीमारी का पता लगाना था.

रिसर्च के नतीजों में चैटजीपीटी ने बीमारियों को जितना विस्तार से समझाया था, उतनी व्याख्या डॉक्टरों ने नहीं की थी. रिसर्चरों ने कहा कि जरूरत है कि डॉक्टर, एआई को अपने काम में शामिल करें. इसके लिए उन्हें ट्रेनिंग दी जाए.

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रिपोर्टः रितिका रितिका