कैसे काम करता है सस्ते रूसी तेल का गणित?
५ अगस्त २०२५डॉनल्ड ट्रंप भारत पर रूस से कच्चे तेल की खरीद कम करने के लिए लगातार दबाव बढ़ाते जा रहे हैं. फिलहाल भारत, रूस के कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक है. ऐसे में कई लोगों को डर था कि कभी-ना-कभी पश्चिम के देशों और रूस के बीच भारत के बैलेंसिंग एक्ट का ये हश्र जरूर होगा. अब ट्रंप ने आरोप लगाया है कि भारत के जरिए रूस को जो विदेशी मुद्रा मिलती है, वो रूस को यूक्रेन में युद्ध लड़ने में मदद करती है. ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत को फर्क नहीं पड़ता कि यूक्रेन में रूस का युद्ध कितने लोगों को मार रहा है.
हालांकि, ट्रंप की ओर से लगातार किए जा रहे जबानी हमलों का जमीन पर अभी कोई खास असर नहीं दिखा है. रूस पर कार्रवाई के ट्रंप के बयान को लेकर मॉस्को ने कहा है कि व्लादिमीर पुतिन को संदेह है कि ट्रंप अपनी धमकी को सच्चाई में बदलेंगे.
समंदर में तेल रिसाव का कैसे पता लगाया जाए?
वहीं, ब्लूमबर्ग का डेटा दिखा रहा है कि ट्रंप की धमकी के बावजूद रूस से होने वाले कच्चे तेल के निर्यात पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा है. भारत ने ना सिर्फ रूसी तेल खरीदना जारी रखा है, बल्कि अमेरिका के साथ यूरोपीय संघ को भी अपने बयानों में निशाना बनाना शुरू किया है.
रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार
रूसी तेल के तीन सबसे बड़े खरीदार देश हैं: चीन, भारत और तुर्की. रूसी कच्चा तेल ना सिर्फ इन देशों की आंतरिक ऊर्जा जरूरतों को फायदा पहुंचा रहा है, बल्कि इनके रिफाइनर भी फायदा कमा रहे हैं. तमाम धमकियों के बाद भी ये सभी पीछे हटने की कोई मंशा नहीं दिखा रहे हैं.
जब जनवरी 2023 में यूरोपीय संघ ने रूस से समुद्र के जरिए आने वाले तेल का बायकॉट किया था, तब से इसकी ज्यादा बिक्री यूरोप के बजाए एशिया में होने लगी. तब से अब तक रूस से कुल ऊर्जा खरीद की बात करें, तो चीन इस मामले में नंबर एक पर है.
चीन ने रूस से करीब 220 अरब डॉलर का रूसी तेल, गैस और कोयला खरीदा है. इसके बाद नंबर है भारत का, जिसने रूस से अब तक करीब 135 अरब डॉलर के ऊर्जा उत्पाद खरीदे हैं. इसके बाद 90 अरब डॉलर के आंकड़े के साथ तुर्की है. हालांकि, यूक्रेन पर रूसी हमले से पहले भारत, रूस से लगभग ना के बराबर कच्चा तेल खरीदता था.
तेल कारोबार में भारत के हाथ जले
दुर्लभ खनिजों के मामले में अभी अमेरिका की निर्भरता चीन पर काफी ज्यादा है. कुछ हफ्तों पहले ही ट्रंप की शी जिनपिंग से फोन पर हुई बातचीत के बाद अमेरिका को ये दुर्लभ खनिज फिर से मिलने शुरू हुए हैं. विश्लेषकों के अनुसार, इसीलिए ट्रंप चीन पर बहुत आक्रामक नहीं हो रहे हैं, लेकिन भारत को आड़े हाथों लेने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं.
जाहिर है फिलहाल भारत के खिलाफ अमेरिका का रुख देखकर तुर्की की सांसें भी ऊपर-नीचे जरूर हो रही होंगी. फिर भारत ने रूसी तेल खरीदते हुए रूस और पश्चिमी ताकतों के बीच अपने बैलेंसिंग एक्ट का काफी शोर मचाया था. दूसरी ओर तुर्की, रूसी कच्चा तेल खरीदते हुए भी चुप साधकर बैठा हुआ था.
इन बड़े खरीदारों के अलावा कुछ छोटे खरीदार भी हैं. मसलन हंगरी, जो पाइपलाइन के जरिए थोड़ा रूसी कच्चा तेल खरीदता है. हंगरी तो यूरोपीय संघ का सदस्य भी है. हालांकि, इसके राष्ट्रपति विक्टर ओरबान रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के मुखर आलोचक रहे हैं.
सस्ते तेल का मोह
आखिर ये देश रूस के तेल में इतनी रुचि क्यों ले रहे हैं? इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि रूस का तेल सस्ता है. दरअसल दुनिया में अन्य जगहों से आने वाले ब्रेंट क्रूड की कीमतों के मुकाबले रूसी कच्चा तेल छूट पर मिल रहा है. ऐसे में इन देशों की रिफाइनरियां इसे खरीदकर अपने मुनाफे को बढ़ाने में लगी हुई हैं.
दरअसल इन देशों की रिफाइनरियां सस्ते में रूसी कच्चा तेल खरीदती हैं और उससे डीजल बनाती हैं. बाद में ये मार्केट में सामान्य डीजल वाले दाम पर ही बिकता है, लेकिन कच्चे माल के तौर पर सस्ता रूसी तेल खरीदकर डीजल बनाने से उनका मुनाफा बढ़ जाता है.
क्यों सस्ता होता है रूसी तेल
जी7 की ओर से रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के चलते मॉस्को अपने कच्चे तेल को सस्ते दामों पर बेचने को मजबूर है. इसके बावजूद रूस को कच्चे तेल के कारोबार से भारी मुनाफा होता है. 'कीव स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स' का कहना है कि रूस ने सिर्फ जून महीने में कच्चे तेल की बिक्री से 12.6 अरब डॉलर की कमाई की.
रूस कच्चे तेल को सस्ते में बेचने पर इसलिए मजबूर है क्योंकि जी7 देशों ने इसके तेल पर प्रतिबंध लगाया हुआ है. यह प्रतिबंध थोड़े जटिल तरीके से लागू होता है. जी7 के नियमों के मुताबिक वैश्विक जहाज और इंश्योरेंस कंपनियां निर्धारित कीमत से ज्यादा के रूसी तेल की शिपमेंट को अनुमति देने से इंकार कर देती हैं. इसलिए रूस को कम दामों पर तेल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
रूसी अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम
रूस ने इन प्रतिबंधों से बचने का रास्ता भी निकाल लिया है. वो इनसे बचने के लिए शैडो फ्लीट का इस्तेमाल करता है. ये पुराने जहाज हैं, जो ट्रैकर पर दिखाई नहीं देते. तो पता नहीं किया जा सकता कि रूसी तेल कहां जा रहा है. इसके अलावा रूस अपने कच्चे तेल के निर्यात के लिए ऐसे देशों की इंश्योरेंस कंपनियों और ट्रेडिंग कंपनियों का इस्तेमाल करता है, जो जी7 देशों के नियमों को नहीं मानती हैं.
'कीव इंस्टीट्यूट' के मुताबिक रूसी तेल निर्यातकों को इस साल करीब 153 अरब डॉलर की कमाई होने का अनुमान है. जीवाश्म ईंधन, रूसी बजट के लिए सबसे बड़ा स्रोत हैं. इस निर्यात के दम पर रूस की मुद्रा को स्थिर बने रहने में मदद मिलती है. साथ ही, रूस इसकी मदद से अन्य देशों से सामानों की खरीद भी कर पाता है. सबसे अहम तो ये कि इसी के दम पर रूस युद्ध चलाए रखने के लिए जरूरी हथियार और गोला-बारूद भी खरीदता है.