घर से निकले थे पायलट बनने, जंग में फंस गए
३ सितम्बर २०२०1941 में जब जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला किया तब हिदेकाजू तामुरा की जिंदगी रातों रात बदल गई. जापानी मूल के हिदेकाजू तब अमेरिका के कैलिफोर्निया में रहते थे. उनके मन में पहला ख्याल आया - अब अमेरिकी लोग मेरी जान ले लेंगे. यह ख्याल उन्हें पहली बार जरूर आया था पर यह आखिरी बार नहीं था.
आज हिदेकाजू तामुरा की उम्र 99 साल है लेकिन दूसरे विश्व युद्ध की वो भयानक यादें आज भी उनके जहन में हैं, जब जापानी मूल के हजारों अमेरिकी नागरिकों के साथ उन्हें भी अमेरिका के इंटर्नमेंट कैंप में कैद किया गया था. दो देशों की लड़ाई के बीच हिदेकाजू पिस रहे थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसका साथ दें. आखिरकार उन्हें अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़नी पड़ी.
जंग में यूं टूटते हैं सपने
हिदेकाजू का जन्म अमेरिका के लॉस एंजेलेस में हुआ था. उनके माता पिता जापानी थे जो अमेरिका आकर बस गए थे. पर कुछ साल बाद उन्हें लगा कि अब काफी धन कमा चुके हैं, अब अपने देश लौटना चाहिए. परिवार ने जापान के ओसाका में एक खेत खरीदा और वहां जाकर रहने लगे. इस बीच हिदेकाजू का दिल अमेरिका में ही अटका हुआ था. 17 साल के हिदेकाजू का पायलट बनने का सपना था. लेकिन जापान में उन्हें यह कह कर मना कर दिया गया था कि उनकी आंखें पायलट बनने के लिए कमजोर हैं. माता पिता की मर्जी के खिलाफ हिदेकाजू ने अमेरिका लौटने का फैसला किया. उसे उम्मीद थी कि अमेरिका उसके ख्वाब को पूरा करेगा.
1938 में हिदेकाजू एयरक्राफ्ट इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए अमेरिका गए और अगले ही साल दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया. फिर फरवरी 1942 में तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने 1,20,000 जापानी मूल के लोगों को बंदी बनाने का आदेश दिया. हिदेकाजू भी इनमें से एक थे.
कुछ वक्त बाद कैंप में रह रहे लोगों से तय करने को कहा गया कि क्या वे अमेरिका की सेना में भर्ती होना चाहेंगे या फिर जापान के सम्राट का साथ देना पसंद करेंगे. इस सवाल ने कैंप में रह रहे जापानी लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया. लोगों के फैसले से तय होने लगा कि वे अमेरिका के साथ वफादार हैं या फिर जापान के साथ. कई बार तो इस मुद्दे पर कैंप में मार काट भी हुई जिसमें कुछ लोगों ने अपनी जान भी गंवाई.
जिन्हें समझ नहीं आया कि क्या करें उन्होंने दोनों ही सवालों का हां में जवाब दिया, जबकि हिदेकाजू ने दोनों का जवाब ना में दिया. इस कारण उन्हें देशद्रोही करार दिया गया और सजा के तौर पर उन्हें लेक तुले के सेंटर में भेज दिया गया. यहां इनकी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो खुद को "होकोकु साइनेन दान" नाम के संगठन का सदस्य बताते थे. इसका मतलब था: ऐसे युवा पुरुषों का संगठन जो अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए तैयार है.
और फिर हार गया जापान
हिदेकाजू बताते हैं कि ये लोग शाम में सैकड़ों की संख्या में कैंप के बाहरी हिस्से में जमा होते और सिर मुंडवा कर, उस पर सफेद कपड़ा बांध कर घूमा करते. यह जापान के प्रति अपनी वफादारी दिखाने का उनका तरीका था. आज उन दिनों को याद करते हुए हिदेकाजू मानते हैं कि उन्होंने बहुत बड़ा जोखिम उठाया था, "वो अमेरिकी सैनिक थे जो जंग से लौटे ही थे और उन्हें जापानी लोगों से नफरत थी. वो हमें गोली मारने के लिए बेताब थे." कैंप में हिदेकाजू जैसे करीब 500 और युवा थे जो यह खतरा उठा रहे थे, "जापान के साथ जंग चल रही थी, तो हमें लगा कि वैसे भी हमें मरना तो है ही."
उपद्रव बढ़ाने के आरोप में उन्हें एक दूसरे कैंप में शिफ्ट कर दिया गया. सैंटा फे इंटर्नमेंट कैंप इनका चौथा और आखिरी कैंप था. अगस्त 1945 में यहां उन्होंने रेडियो पर जापान के सम्राट के आत्मसमर्पण की खबर सुनी लेकिन उन्हें यकीन नहीं हुआ. हिदेकाजू को लगा कि अमेरिका प्रोपगंडा के तहत ऐसी खबर चला रहा है. लेकिन जंग वाकई खत्म हो गई थी.
करीब तीन महीने बाद नवंबर 1945 में हिदेकाजू सिएटल से एक जहाज में बैठे और समुद्र में दो हफ्ते का सफर कर जापान लौटे, "जब तक मैं जापान पहुंच नहीं गया, मैं मानने को तैयार ही नहीं था कि जापान जंग हार गया है. अमेरिका में सम्राट की स्पीच सुनने के बाद भी मैंने यकीन नहीं माना था कि ऐसा हो सकता है."
दिसंबर 1945 में अपने जन्मदिन पर हिदेकाजू जापान के उरागा पोर्ट पर पहुंचे और वहां उन्होंने मिट्टी के बर्तन में खाना पका रही एक महिला से पूछा, "क्या जापान जीत गया?" उस महिला ने गुस्से से भरे स्वर में कहा, "हार गया, अपने आसपास देखो क्या हाल है!" तब हिदेकाजू को अहसास हुआ कि उनके इर्दगिर्द सब कुछ राख हुआ पड़ा था.
आज 75 साल बाद उस जमाने को याद करते हुए हिदेकाजू कहते हैं कि उन्होंने कभी अमेरिका को अपना दुश्मन नहीं समझा था लेकिन उनके दिल में जापान को ले कर जो देशप्रेम था, वह उन्हें स्वीकारने ही नहीं दे रहा था कि जापान अमेरिका के हाथों हार गया. इतने सालों बाद भी अमेरिका उनके ख्यालों में है. वे हर रोज अमेरिका से जुड़ी खबरें पढ़ते हैं, फिर चाहे वहां का राष्ट्रपति चुनाव हो या नस्लवाद को लेकर चल रहे प्रदर्शन, उन्हें सब की खबर है, "70-80 साल बाद भी वहां वही समस्या है: नस्लवाद. यह समस्या तो कभी हल ही नहीं होती."
आईबी/एमजे (एपी)