भूलना भी ज़रूरी है
३१ अक्टूबर २००८भूलना मानवीय ही नहीं, स्वाभाविक और ज़रूरी भी है. वैज्ञानिक कहते हैं कुछ भूल जाना मस्तिष्क के लिए कोई दूसरी चीज़ याद रखने की शर्त है. भूलने की क्रिया समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि मस्तिष्क में सूचनाओं का संप्रेषण कैसे होता है. जर्मनी में कोलोन विश्वविद्यालय के अधीन Neuropsychology अर्थात तंत्रिका मनोविज्ञान विभाग के निदेशक प्रोफ़ेसर डॉ.योज़ेफ़ केसलर बताते हैं कि विज्ञान इस बारे में अब तक क्या जान पाया हैः
" होता यह है कि पहले तो मस्तिष्क की किसी कोषिका को कहीं से कोई सिग्नल यानी संकेत मिलता है. वह संकेत तब किन्हीं रासायनिक पदार्थों को मुक्त करता है. ये रासायनिक पदार्थ किसी दूसरी कोषिका से संपर्क साधते हैं. और तब बिजली के एक हल्के स्पंद के रूप में सूचनाएँ आगे बढ़ा दी जाती हैं."
सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए कंप्यूटर में भी बिजली के सूक्ष्म स्पंदों का विनिमय होता है. तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि कंप्यूटर के पास भी अपना दिमाग़ होता है. कंप्यूटर अपने पास की सूचनाएँ अलग-अलग नामों की फ़ाइलों में जमा रखता है. हम इन फ़ाइलों को "आमदनी," " ख़र्च" या "यार-दोस्त"
जैसे नाम देते हैं. जैसा कि डॉ. केसलर बताते हैं, हमारा मस्तिष्क इस तरह की फ़ाइलें नहीं बनाताः
"दिमाग़ में ऐसी कोई जगह नहीं होती, जहाँ शब्द रहते हैं या ख़ास घटनाएँ रखी रहती हैं. दिमाग़ को हमें एक ऐसे जाल के तौर पर देखना चाहिये, जो ढेर सारी तंत्रिका कोषिकाओं का तानाबाना है."
दिमाग़ कभी सोता नहीं
मस्तिष्क की कोषिंकाएँ सारा समय अविराम सूचएँ भेजती और ग्रहण करती रहती हैं:
"इसे कुछ इस तरह देखना होगा. मस्तिष्क में चल रही गतिविधियों से कुछ ख़ास तरह के पैटर्न बनते हैं, एक तरह की चमक पैदा होती है. इस स्फुरण या स्पंद को किसी ख़ास याद का सूचक कह सकते हैं."
मस्तिष्क में स्पंद वाले इस पैटर्न की रूपरेखा को तेज़ी से या आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता, क्योंकि एक वयस्क व्यक्ति के मस्तिष्क में अनुमानतः सौ अरब कोषिकाएँ होती हैं और वज़न क़रीब 1400 ग्राम होता है. जन्म के समय यही वज़न केवल 300 ग्राम होता है. हम भले सो रहे हों, मस्तिष्क कभी सोता नहीं, दिन-रात सक्रिय रहता है. चीज़ें भूल जाना भी इसी सक्रियता का हिस्सा हैः
"इसलिए, क्योंकि हम अपने जीवन में बहुत-सी फ़ालतू और वाहियात बातें भी सीखते रहते हैं. सड़क पर से गुज़रते समय भी हम हज़ारों चीज़ों को नोट करते हैं. यदि हम सब कुछ याद रखने लगे, तो दिमाग़ का सारा स्मरण-भंडार दो ही दिनों में भर जायेगा."
क्षणिक स्मृति
छोटे बच्चे बड़ा होने के साथ अधिकतर वह सब भूल जाते हैं, जो तीन साल की आयु होने तक उन के जीवन में हुआ था. कुछ बहुत साधारण-सी जानकारियाँ एक थोड़े समय के लिए प्राणरक्षक साबित हो सकती हैं, जैसे कि सड़क पार करते समय यह याद रखना कि कहीं कोई वाहन तो नहीं आ रहा है? हमारा शरीर आँख और कान जैसी हमारी इंद्रियों के द्वारा आस-पास की सूचनाएँ ग्रहण करता है और मस्तिष्क उन्हें केवल क्षणभर के लिए अपनी याददाश्त में जगह देता है.
"मस्तिष्क ऐसी सूचनाओं को तब एक बार और छानता है और उन्हे अल्पकालिक स्मृति भंडार में डाल देता है. वहाँ वे 18 से 20 सेकंड तक रहती हैं. यदि इन सूचनाओं पर हम अलग से ध्यान नहीं देते, तो उन्हें भूल जाते हैं. अक्सर होता है कि हमने कोई टेलीफ़ोन नंबर सुना, सुनते ही वह नंबर डायल किया और डायल करते ही उसे भूल गये."
कंजूस दिमाग़
जब हम कोई बात ध्यान से नहीं सुनते या सुनते समय कोई दूसरा काम कर रहे होते हैं, तब भी सब कुछ जल्द ही भूल जाते हैं. याददाश्त के मामले में दिमाग़ बहुत कंजूस होता है. हमेशा बचत करने के चक्कर में रहता है. इसीलिए कई बार ऐसा होता है कि काम पर से घर जाते समय हम सोच कर तो यह चलते हैं कि रास्ते में फलाँ काम भी निपटाते चलेंगे, लेकिन वह काम भूल जाते हैं और पहुँच जाते हैं सीधे घर. डॉ. केसलर इसे एक प्रकार की स्वचालित क्रिया बताते हैं:
"स्वचालित हरकतों पर बहुत अधिक ध्यान देने की ज़रूरत नहीं पड़ती. उनकी आदत पड़ चुकी होती है. जब भी नियमित से हट कर कुछ दूसरा काम करना हो, तो दिमाग़ की भी कुछ दूसरी जगहों को सक्रिय होना पड़ता है."
दीर्घ स्मृति
अल्पकालिक के विपरीत है दीर्घकालिक स्मृति-भंडार. वहाँ, कह सकते हैं कि हमारी जीवन-यात्रा की यादें जमा रहती हैं. किसी याद को दीर्घकालिक स्मृति-भंडर में तभी जगह मिलती है, जब उसने दिमाग़ पर गहरी छाप डाली हो, उसे गहराई तक या लंबे समय तक कुरेदा हो. ऐसा इसलिए, ताकि वे रासायनिक पदार्थ और विद्युत स्फुरण, जिनका मस्तिष्क-कोषिकाओं के बीच आदान-प्रदान होता है, एक निश्चित तीव्रता प्राप्त कर सकें. आनन्ददायक अनुभव या झकझोर देने वाली अन्य भावानुभूतियाँ दिमाग़ में कहीं तेज़ उद्दीपन पैदा करती हैं. उन्हें कितना तीव्र होना चाहिये, यह अभी ज्ञात नहीं हैः
"हमें अभी भी ठीक से पता नहीं है कि स्मरण क्रिया किस प्रकार काम करती है. इसलिए हम यह भी ठीक से नहीं जानते कि विस्मरण, यानी भूल जाना कैसे होता है."
बैठा सर, शैतान का घर
स्मरण और विस्मरण की क्रिया को भलीभाँति नहीं जानने के कारण ही इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं मिल पाया है कि किन रासायनिक और वैद्युतिक उद्दीपनों के द्वारा बड़े-बूढ़ों या सठिया गये लोगों के भुलक्कड़पने को दूर किया जा सकता है. कुछ वैज्ञानिक कहते हैं, जो कुछ आज भूल गया लगता है, वह भी दिमाग़ में कहीं-न-कहीं सोया पड़ा है. दूसरे कहते हैं, जो कुछ भूल गया, वह पहले धुंधला पड़ जाता है और फिर ग़ायब हो जाता है. बूढ़े लोगों को अक्सर लगता है कि उनकी सारी यादें धुंधली पड़ती जा रही हैं. वैसे, बूढ़े हों या जवान, भूलते सभी हैं. भुलक्कड़पन की रोकथाम का सबसे कारगर उपाय है, दिमाग़ को व्यस्त रखना. उसमें ऐसी जानकारियाँ ठूँसते रहना, जिनके बीच दिमाग़ कोई संबंध, कोई तारतम्य जोड़ सकेः
"जितनी ही अधिक मेरी जानकारी होगी, उतना ही अधिक मेरे लिए सरल होगा नये ज्ञान को अपने पुराने ज्ञानभंडार में समाहित करना."
कितनी विचित्र बात है कि भुलक्कड़ी के विरुद्ध सबसे कारगर दवा है, दिमाग़ में खूब नयी-नयी जानकारियाँ भरते रहना. कहावत भी है, "बैठा सर, शैतान का घर." सर को व्यस्त रखें, तो उसे शैतीनी ख़ुराफ़ातें भी नहीं सूझेंगी.