फ़ुटबॉल वर्ल्डकप में किसकी राह कैसी
१२ दिसम्बर २००९संदेहों और सवालों के बीच वर्ल्ड कप फ़ुटबॉल पहली बार किसी अफ्रीकी देश में हो रहा है. मज़बूत टीमों के लिए दूसरे दौर का सफ़र आसान दिखता है और फ़ुटबॉल जगत की कम जानी जाने वाली टीमें पहले दौर के बाद टिकट कटाती दिख रही हैं. ग्रुप ऑफ़ डेथ जैसी कोई चीज़ इस बार के ड्रॉ में नहीं दिख रही है.
यूं तो वर्ल्ड कप तक पहुंचने वाली बत्तीस में से कोई भी टीम कमज़ोर नहीं होती लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अब तक के अठारह वर्ल्ड कप बस लैटिन अमेरिका और यूरोप में ही घूमते रहे हैं. नौ बार यूरोपीय देश चैंपियन बने हैं तो बाक़ी के नौ बार दक्षिण अमेरिकी देश ब्राज़ील, अर्जेंटीना और उरुग्वे. बाक़ी के महाद्वीप तो बस इस विशाल और अद्भुत प्रतियोगिता में हिस्सा भर ले पाते पाते हैं या कभी कभार इसे अपनी धरती पर आयोजित करने में कामयाब हो पाते हैं.
2010 वर्ल्ड कप की तस्वीर भी अलग नहीं है. सबसे बड़ी आठ टीमों में पांच यूरोप की हैं, दो दक्षिण अमेरिका की, ब्राज़ील और अर्जेंटीना और एक दक्षिण अफ्रीका, क्योंकि वह मेज़बान है. लेकिन मेज़बान दूसरे दौर तक पहुंच पाएगा, कहना मुश्किल है. उसके ग्रुप में वर्ल्ड कप जीत चुकी टीमें थियोरी ऑनरी की अगुवाई वाली फ्रांस और उरुग्वे हैं, तो मेक्सिको की मज़बूत टीम भी इसी ग्रुप में है.
हर ग्रुप से सिर्फ़ दो टीमें आख़िरी 16 में जगह बना पाएंगी. तो ऐसा भी हो सकता है कि पहले दौर के बाद दक्षिण अफ्रीका को खेल पर कम और मेहमान नवाज़ी पर ज़्यादा ध्यान देना पड़े.
सबसे ज़्यादा पांच बार वर्ल्ड कप जीत चुकी रोनाल्डिन्यो और काका की टीम ब्राज़ील एक मुश्किल ग्रुप में ज़रूर फंसी है, जहां क्रिस्टियानो रोनाल्डो वाली पुर्तगाल और ख़तरनाक फ़ुटबॉलर ड्रौग्बा की आइवरी कोस्ट जैसी टीमें हैं. लेकिन इसी ग्रुप में उत्तर कोरिया भी है और ब्राज़ील को पहले दो में आने में कोई ख़ास परेशानी नहीं होती दिखती.
पिछले पचास सालों में सबसे मज़बूत चार टीमों में गिनी जाने वाली मिशेल बलाक की जर्मन टीम को भी आसान ग्रुप मिला है, जहां उसके हिस्से में सर्बिया, घाना और ऑस्ट्रेलिया की टीमें आई हैं. ठीक है कि ऑस्ट्रेलिया दुनिया के उस हिस्से में हाल के दिनों में लाजवाब फ़ुटबॉल खेलता आया है लेकिन यहां तो बात वर्ल्ड कप की है. लुकास पुडोस्लकी, मीरोस्लाव क्लोज़ा, सेबेस्टियन श्वान्सटाइगर, गोमेस और गोलकीपर एडलर से सजी जर्मनी की टीम अपनी कसर निकालने की ताक़त रखती है. उनीस सौ चौवन के बाद से जर्मनी बीस साल के अंदर एक बार वर्ल्ड कप ज़रूर जीतता आया है और आख़िरी बार इसने 1990 में इस ट्रॉफ़ी पर कब्ज़ा जमाया था.
नीदरलैंड्स, इंग्लैंड, स्पेन और अर्जेंटीना को भी आसान ग्रुप मिले हैं और इनमें से हर टीम हर बार वर्ल्ड कप जीतने की ताक़त रखती है. कपोलो की कोचिंग काम आ रही है और डेविड बेखम और वेन रूनी की मौजूदगी से इंग्लैंड हर बार की तरह इस बार भी जीत का बड़ा दावेदार समझा जा रहा है.
नीदरलैंड्स फ़ुटबॉल इतिहास की सबसे मज़बूत टीमों में गिना जाता है और इस बार उसके सबसे बड़े सितारे उसके गोलकीपर वैन डर सार साबित हो सकते हैं. उसके ख़ेमे में जापान, कैमरून और डेनमार्क की औसत टीमें हैं.
डिएगो मैराडोना की कोचिंग वाली अर्जेंटीना की टीम को नाइजीरिया, दक्षिण कोरिया और ग्रीस से भिड़ना है. वैसे तो ये मुक़ाबले बहुत आसान दिख रहे हैं लेकिन जिस तरह लायोनल मेसी की अर्जेंटीना टीम ने वर्ल्ड कप क्वालीफ़ाइंग के छह मुक़ाबले गंवाए हैं, उससे इसकी स्थिति इस बार बहुत मज़बूत नहीं समझी जाती.
रही बात स्पेन की तो यूरोपीय चैंपियनशिप जीतने के बाद स्पेन अपने नाम के आगे वर्ल्ड कप का तमग़ा भी लगा देखना चाहता है. स्पेन कभी भी वर्ल्ड कप नहीं जीता है.
इन दिग्गजों के बीच पिसी छोटी टीमें भी अपनी रणनीति बना रही होंगी और उलटफेर करने की महत्वाकांक्षा सजा चुकी होंगी. वर्ल्ड कप में हर बार सरप्राइज़ के तौर पर कोई औसत टीम एकदम से उछाल मार जाती है. चाहे वह उनीस सौ नब्बे में वर्ल्ड चैंपियन अर्जेंटीना को हराने वाली कैमरून की टीम हो, उनीस सौ अठानबे में तीसरे नंबर तक पहुंच जाने वाली क्रोएशिया दो हज़ार दो में सेमीफ़ाइनल में जगह बना लेने वाली दक्षिण कोरिया और तुर्की की टीमें.
कहते हैं अपने ग्राउंड पर खेलने का बहुत फ़ायदा मिलता है. दुनिया की छिसासीवीं नंबर की टीम दक्षिण अफ्रीका क्या ऐसा फ़ायदा उठा पाएगी या चमचमाता वर्ल्ड कप क्या इस बार किसी अफ्रीकी देश की शोभा बढ़ा पाएगा. इंतज़ार है, बस छह महीनों का, ग्यारह जून दो हज़ार दस से महीने भर की दुनिया की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता शुरू होने वाली है. भारत के खेलप्रेमी तो हर बार की तरह इस बार भी क़सक के साथ किसी और टीम के प्रशंसक बनेंगे. आख़िरकार दुनिया के इस सबसे मशहूर खेल मेले में भारत ग़ैरहाज़िर ही रहेगा.