एमएफ़ हुसैन अब क़तर के नागरिक
२६ फ़रवरी २०१०चूंकि भारत में दोहरी नागरिकता का प्रावधान नहीं है लिहाज़ा अब हुसैन शायद आने वाले दिनों में ओवरसीज़ इंडियन सिटीज़न के रूप में अपना नामांकन चाहें तो करा लें वरना वो अब तो क़तर के नागरिक हैं. 2010 की शुरूआत में कला संस्कृति की भारतीय परंपरा के लिए ये एक सदमे वाली स्थिति है.
द हिंदू अख़बार में हुसैन के भेजे एक संदेश से हुसैन के प्रशंसक और कला प्रेमी और संस्कृतिकर्मी स्तब्ध हैं कि भारत देश ने अपने एक सपूत को इस तरह गंवा दिया. ये एक अजीब संयोग है कि जब देश क्रिकेट के महान सितारे सचिन तेंदुलकर के वनडे में 200 रन का अभूतपूर्व जश्न मना रहा था तो उधर देश से बाहर अघोषित किस्म के निर्वसन में रह रहा देश का सबसे बड़ा पेंटर देश लौटने की एक विकराल छटपटाहट से जूझता हुआ एक दूसरे देश का नागरिक बनने का अनचाहा गौरव हासिल कर रहा था.
95 साल के हुसैन के पास विकल्प नहीं थे. देश की विभिन्न अदालतों में बताया जाता है उनके ख़िलाफ़ इतने मुक़दमें हैं कि वो देश लौटने की जुर्रत नहीं कर सकते थे. हिंदू कट्टरपंथियों और उनके नाना किस्म के सूरमाओं ने हुसैन के ख़िलाफ़ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के मामले दायर किए हुए हैं. हुसैन लड़ते रहते लड़ते रहते और शायद हार जाते. आखिर एक कलाकार इस सनक भरी और जुनूनी लड़ाई का हिस्सा बनने नहीं आया है.
द हिंदू अख़बार को भेजे अपने संदेश में हुसैन ने एक चित्राकृति के साथ एक लाइन भेजी है कि वो अब क़तर के नागरिक हैं. इस वाक्य की करुणा और इसमें छिपी पीड़ा, अफ़सोस, उदासी और दर्द को कोई कठमुल्लापन कभी नहीं समझ पाएगा. एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाला और खजुराहो और दक्षिण भारत की मंदिर कला परंपराओं वाले सांस्कृतिक देश भारत की सरकार भी हुसैन के मामले पर ख़ामोश है.
कुछ कोशिशें अलबत्ता छिटपुट हुई लेकिन हुसैन को बाहर रखना लगता है ज़्यादा मुफ़ीद है. कोई किसी को नाराज़ नहीं करना चाहता. मानो हुसैन अगर देवी देवीताओं के चित्र न बनाते, तो भारत के नागरिकों, धर्म के ठेकेदारों को कभी अश्लीलता न दिखती. कभी संस्कृति का अनादर न दिखता. खजुराहो और अजंता एलौरा हैं तो क्या हुआ. हुसैन नहीं चाहिए. गोकि हुसैन की राष्ट्रीयता, देशभक्ति और प्रेम पर संदेह है. हुसैन एक महत्वपूर्ण पेंटर से विवादास्पद पेंटर बना दिए गए.
हुसैन के चाहने वालों का कहना है कि ये भीषण स्तब्धकारी घटना है कि इस देश को आज़ाद हुए और संप्रभु गणतंत्र बने उतने साल नहीं हुए जितनी हुसैन की उम्र है लेकिन उन्हें एक अघोषित देशनिकाला किस्म का झेलना पड़ रहा है.
जश्न और मस्ती और अमीरी और बहुसंख्यकवाद की खुमारी में डूबे समाज के लिए क्या यह एक ग्लानि का दिन नही कि वह अपने एक महानायक के तिरस्कार का भागी है. अपार वंदनाओं और कीर्ति पताकाओं और यश प्रार्थनाओं के इस दौर में देखने वाली बात है कि कितने लोग हुसैन की नागरिकता में इस बदलाव के लिए अफ़सोस और हैरानी ज़ाहिर कर पाते हैं. 20 वीं सदी के महान भारतीय पेंटर मक़बूल फ़िदा हुसैन क्या अब 20 वीं सदी के महान पेंटर हैं...भारतीय मूल के.
हुसैन को नागरिकता से नवाज़कर क़तर सम्मानित हुआ है और हुसैन के चाहने वाले कुछ ख़ुश कुछ उदास और कुछ राहत में हैं. हुसैन अब सुनते हैं कि भारतीय सभ्यता और अरबी सभ्यता पर अपने चिरपरिचित तूफ़ानी अंदाज़ में एक बड़ी कला योजना पर काम कर रहे हैं. एक कलाकार आखिर एक समस्त मनुष्य जिजीविषा का प्रतीक और एक सकल वेदना का वाहक है या महज़ एक देश का ये भूगोल का. 21वीं सदी के इन वक़्तों की कला दुनिया के नज़ारों में मक़बूल फ़िदा हुसैन से बड़ी मिसाल नहीं होगी.